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________________ श्रीवरकृतां निर्भयः । स गत्वा नृपसन्देशमब्रवीदिति किं वक्तीति क्षणं क्रुद्धैस्तत्त्वज्ञः परिवेष्टितः ॥ ११८ ॥ १ : १ : ११८-१२३ ] ११८. वह जाकर 'क्या कहता है ?' इस क्षण भर के लिये, क्रुद्ध तत्वज्ञों से घिरा, वह निर्भय होकर, नृप के सन्देश' को कहा राजपुत्र महाबाहो दाक्षिण्यामृतसागर | शृणु पित्रा समादिष्टं यत् तत्सर्वं ब्रवीमि ते ।। ११९ ॥ ११९. 'हे ! राजपुत्र !! हे ! महाबाहो !! हे ! दाक्षिण्यामृतसागर !! पिता ने जो सन्देश दिया है, सुनो वह सब तुमसे कहता हूँ फलं संसारवृक्षस्य लाभोऽमुत्र पित्रोलोत्सवो नित्यं पुत्रः कैर्नाम १२०. 'संसार वृक्ष का फल, यहाँ इस लोक और परलोक में लाभप्रद, माता-पिता के नेत्रों नित्य आनन्दकारी पुत्र की निन्दा कौन लोग करते हैं ? सर्वः सञ्चिनुते सर्वं पुत्रार्थं वार्द्धके वचनग्राही भवेत् १२१. 'सभी लोग प्रयत्नपूर्वक पुत्र के लिये, वस्था में वचनग्राही तथा सुखप्रद हो । परत्र च । निन्द्यते ।। १२० ।। ४३ प्रयतो यतः । पितृसुखप्रदः ।। १२१ ॥ सब कुछ संचय करते हैं, ( जिससे वह ) वृद्धा इत्थं लोकद्वयस्थित्यां त्वयि जाते सुते मम । दूरे सर्वसुखाशास्तु चिन्ता प्रत्युत वर्धिता ।। १२२ ।। १२२. 'इस प्रकार की लोक स्थिति में तुम्हारे मेरे पुत्र होने से सब सुख की आशा दूर है, प्रत्युत चिन्ता ही बढ़ गयी । त्वत्कृतो दुर्जनाश्वासो निःश्वासो य इवान्वहम् । मलिनीकुरुते शुद्धं मद्राज्यं मुकुरोपमम् ॥ १२३ ॥ पाद-टिप्पणी : ११८. ( १ ) सन्देश जैनुल आबदीन ने अपनी सेना एकत्र किया और उसने अपने पुत्र के पास उचित सलाह एवं करुणापूर्ण सन्देश भेजा । १२३. 'तुम्हारा दुर्जनों का दिया गया, प्रोत्साहन निःश्वास के समान, मेरे दर्पण सदृश शुद्ध राज्य को मलिन कर रहा है । किन्तु सुल्तान के सन्देशों का कोई प्रभाव हाजी खां पर नही हुआ ( फिरिस्ता : ४७१ ) । पाद-टिप्पणी : पाठ-बम्बई ।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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