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________________ १० जैन राजतरंगिणी नाश्ता कभी जीवन में नहीं किया । अतएव उसकी चिन्ता या इच्छा नहीं थी । बाहर कुछ खरीदकर, खाने, की आदत नहीं थी । पान, सुरती, बीड़ी, सिगरेट या किसी प्रकार के व्यसन की आदत नहीं थी । उनसे दूर सर्वदा रहा हूँ । जन्म से ही शुद्ध निरामिष हूँ । घर में गाय रखना धर्म का अंग है। उससे शुद्ध दूध तथा घी मिल जाता है । खेती से अन्न, गुड़, खाड़ आदि आ जाते हैं। बाजार से तरकारी के कुछ नहीं खरीदना पड़ता है । अतिरिक्त, और जीवन व्यवस्थित हो गया । लिखने और पढ़ने के लिये पर्याप्त समय मिला। किसी प्रकार की सांसारिक चिन्ता न थी । मन स्वस्थ था । पुरानी स्मृतियाँ जागकर, कभी तंग करती, तो उनकी सीमा मन ही तक रह जाती । निराशा : घर में स्वदेशी का सन् १९०५ और खद्दर का सन् १९२० से व्यवहार होता है। दो जोड़ा धोती और दो कुरतों से वर्ष बीतता है । शरीर की चिन्ता मेरी स्त्री और मन की चिन्ता मेरे वश की बात थी । समाचार पत्र पढ़कर, राजनीतिक घटनाओं के चिन्तन में उलझता, आशा-निराशा में झूलता रहता । शिपिंग बोर्ड की चेयरमैनी, समुद्रों के सामरिक एवं व्यापारी जहाजों की गणना, उनका अध्ययन अब भी करता हूँ । नोट बनाता | देशों के नवपरिवहन तथा नवशक्ति की जिज्ञासा का अभ्यस्त हो गया | विश्व के देशों की प्रगति और भविष्य पर विचार करता रहता हूँ। मुझे जीवन में दुःख केवल एक बात का रहा है । सैनिक तथा व्यापारिक दोनों जहाजों का विशेषज्ञ होने पर, लोगों के यह जानने पर, किसी ने किसी प्रकार की जिज्ञासा मुझसे संसद से हटने के पश्चात नहीं की। वह जैसे संसद की देन थी । संसदीय जीवन के साथ समाप्त हो गयी । इस प्रकार की स्थिति भारत में ही शायद सम्भव है । हिन्दुस्तान जिंक लि० सरकारी संस्थान उदयपुर का कारखाना अपनी अध्यक्षता काल में निर्माण कराया । अपने समय में चलाया। प्रथम वर्ष में लाभ दिया । लेकिन वहाँ से हटना पड़ा । मैं सत्तारूढ़ दल में नहीं था । स्वतन्त्र विचारक था । दल का पुछिल्ला बनना पसन्द नहीं था । दल का खजाना भरना मेरे प्रकृति और बूते के बाहर की बात थी । कलकत्ता तीन मास में एक बार युनाइटेड कामर्शियल बैंक लि० के संचालक बोर्ड की बैठक में जाता हूँ । उस समय कलकत्ता मैदान के समीप विशाल गंगा नदी और उस पर चलते जहाजों तथा स्टोमरों को देखता रहता हूँ । मेरे जहाजों के अध्ययन की, जैसे यह अन्तिम अध्याय है । एक साथी : सन् १९७० से सन् १९७६ ई० मध्य मेरा साथी, कुत्ता टीपू था । अनजाने मेरे यहाँ आया । अनजाने चला भी गया । उसने मेरा साथ अवसरवादियों के समान नहीं त्यागा। रात में द्वार पर सोता था । दिन में घूम-धाम कर, पास आ जाता था । रखवाली करता था । रात में मैं दूध पीता था । उसके लिये आघ सेर अलग दूध आता था । हम दोनों साथ ही पीते थे। वह पीकर, तृप्त होकर दो चार बार जीभ बाहर निकाल कर, सिंह आसन पर बैठ कर मेरी ओर जिस कृतज्ञता से देखता था, वह कृतज्ञ दृष्टि मनुष्यों में दुर्लभ है। अकस्मात एक दिन वह नीचे लगभग में वह दो एक बार घूमकर, बिना शब्द किये, १० बजे दिन उतरा । मैं खाकर अखबार पढ़ रहा था । आँगन बिना रोये, बिना भूके, बिना आह खोचे, पैर पसार दिया ।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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