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भूमिका मर गया। मुख खुल गया। जबड़े से बाहर दन्त पक्ति निकल आयी। आगन से मेरी साली राजकुमारी बोली-'टीपू न जाने कैसा हो गया ।' मैं नीचे आया। देखते ही बोल उठा-मर गया। आँखें भर आयी। पास बैठ गया । गंगा जल मँगाया। उसके मुख में तुलसी दल के साथ छोड़ दिया। मैं जीवन में रोया नहीं था । आज रोया । उसे देखता रोय।। यह सोचकर रोया । इसे अब न देख सकूँगा । संसार से चल दिया। इसी तरह मैं भी एक दिन चल दूंगा। .
कफन में लपेटा । सगड़ी पर रखा । फूल-माला चढ़ाया। परलोक यात्री को करबद्ध प्रणाम किया। मेरा एक नौकर रामजनम है। गंगा प्रवाह करने उसे लेकर चला। सगड़ी चली, दक्षिण ओर । जब तक सगड़ी दिखायी देती रही, भरी आँखों देखता रहा । इसलिये देखता रहा। उसे अब न देख सकूँगा । मेरे साथ न रह सकेगा। सगड़ी गली के मोड़पर लोप होने लगी। अंजलिबद्ध कर उठ गये। प्रणाम किया। चिन्तन करते हुये । शायद मरने पर उससे भेंट होगी। मरने पर जहाँ सब जाते हैं। वहीं वह भी गया होगा। वहीं मैं भी पहुँचूंगा। वहाँ उससे मिलूगा। उसका प्रेम पाऊँगा। स्नेह पाऊँगा । यह आशा, इस करुण काल में सुखकर लगी। आज भी, उसे याद करता हूँ, मन भर आता है। आँखें श्रद्धांजलि देती है। मन रोकर कहता है-कहीं यह स्नेह, मुझे मनुष्यों से मिला होता ?
एक कुटुम्ब : इस दशक में एक कुटुम्ब से परिचय हुआ। यहाँ मुझे सहृदयता मिली । स्नेह मिला । संसार से विरक्त, स्नेह त्यागता है। प्रेम बन्धन शिथिल करता है । जगत से उपराम लेता है। किन्तु जगत से यह पलायन की प्रवृत्ति अच्छी नहीं है । संघर्षों से भागना कायरता है। गृहस्थ जीवन में रहकर, दैनिक जीवन के संघर्षों में रहकर, जगत के हास-विलास, भोग-रोग, गरीबी-अमीरी, सुख-दुःख, आशा-निराशा में रहकर, प्राणियों का जो पालन करता है, पद-पद पर वैयक्तिक सुखों को तिलांजलि देकर, कुटुम्ब के लिये क्षण-क्षण त्याग करता है, उस गृहस्थ से बढ़कर, भला इस दुनिया में कौन त्यागी होगा ?
मुझे गृहस्थी पसन्द है। गृहस्थ का भरा-पुरा घर देखता है। मन प्रसन्न हो जाता है । जिस घर में, विवाद नहीं, कलह नहीं, दूसरों के लिये आदर, आरतों के लिये करुणा, कष्ट उठाकर दूसरों के कष्टों को दूर करने की प्रवृत्ति, देखता हूँ, तो सुख मिलता है। यदि भरे-पुरे घर में लक्ष्मी के स्थान पर, सरस्वती की पूजा होती है, तो सरस्वती की वाणी गूंजती है, घर पवित्रता से भर उठता है।
जहाँ एक प्राणी दूसरे प्राणी का जहाँ आहार नहीं होता, जहाँ अन्न ही भोज्य है, जहाँ निरामिष वातावरण में मुक्त प्राण वायु मिलती है, वह घर नहीं पवित्र भूमि है । जहाँ स्त्री गृहिणी है, मधुर भाषिणी है, जहाँ अतिथि सेवा यज्ञ है, जहाँ गृहिणी सरस्वती की चिन्तक है, वह घर सरस्वती का जागृत मन्दिर है। जहाँ बाल-गोपाल खेलते हैं । माता-पिता स्नेह रखते हैं, जहां भय केवल कहानी है, वह घर पुण्य स्थली है।
__ श्री लल्लनजी गोपाल के इस कुटुम्ब से, राजतरंगिणी भाष्य प्रणयन काल आरम्भ से सम्पर्क रहा है। उन्हीं के प्रेरणा पर, राजतरंगिणी मुद्रण का कार्य आरम्भ किया गया था। उनके यहाँ लम्बे दश वर्ष तक प्रायः प्रति दिन विचार गोष्ठी होती रही है। चाय मिलती थी। मिष्ठान्न मिलता था। अकेली गृहणी श्रीमती कान्ती देवी, बच्चों की सेवा करती थी। उन्हें पढ़ाती थी। भोजन बनाती थी। विश्वविद्याबय में पढ़ाती थी। इतने व्यस्त जीवन के पश्चात, अतिथि सत्कार का उनमें अप्रतिम उत्साह, आगन्तुकों के प्रति सहृदयता, देखकर, कोई भी इस गृहस्थ जीवन के वातावरण पर मुग्ध हो उठेगा। स्वयं लन्दन की पी-एच० डी० होते हुए विलायत की शिक्षा प्राप्त कर, भारतीय नारी अनुरूप व्यवहार, आज कल की पढ़ी लिखी महिलाओं के