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________________ भूमिका देखा है । उन्हें जैसे मेरे इस ढलती उम्र में लगन से कार्य करते देखकर, दया आती थी। वे अपनी सहानुभूति का परिचय, दो-चार मधुर शब्द बोलकर, देते थे। एकाकी: मैं अकेला हूँ। किसी के जीवन निर्वाह का मुझपर भार नहीं है। घर पर सभी सुविधायें, जो इस शरीर को चलाने के लिए आवश्यक थी, उपलब्ध थी। इसमें मेरी स्त्री सहायक थी। हमारा विवाह सन् उन्नीस सौ छब्बीस ई० में ही हो गया था। वह मुझसे छ वर्ष छोटी है। पठित नहीं है। काशी नगर की ही रहने वाली है। मेरे मकान औरङ्गाबाद से उसका मकान गोवर्धन सराय दो फर्लाङ्ग से अधिक नहीं है । विवाह में लेन-देन का प्रश्न तत्कालीन प्रथा के अनुसार नहीं उठा था। दोनों ही कुटुम्ब कुलीन, सनातन धर्मावलम्बी तथा जमीन्दार थे । देशी घी, देशी चीनी, देशी वस्त्र, देशी वस्तुओं का प्रयोग होता था। बाजारू बनी चीजों का प्रयोग वजित था। बीमारी में औषधि भी वैद्य की होती थी। इस संस्कार में मेरी स्त्री पली थी। उसका वह संस्कार अभी कायम है। बिना स्नान किये भोजन नहीं बनाना चाहिए, लघु शंका पश्चात् हाथ पैर धोना, दीर्घ शंका पर, स्नान करना, किसी का स्पर्श भोजन तथा पानी नहीं पीना, जौ, चना, गेहूँ आदि धोकर पिसाना, बरतनों को माजकर चमकाना, आदि आचार संहितायें हमारे घर में रुढ़ हो गई है। कुत्ता, बिल्ली, जानवरों का स्पर्श होते ही, स्नान करना आवश्यक है। मैं छुआछुत नहीं मानता। सामाजिक कार्य कर्ता होने के कारण, मुसलमान और हरिजन का स्पर्श होता था, यह बात ज्ञात होने पर, मेरा स्पर्श किया, पानी और भोजन घर में कभी कोई नहीं करता था। दिल्ली संसद में मैं चुन कर गया । वहाँ बंगला मिला। सफाई करने वाला प्रतिदिन आता था। दिल्ली तथा पश्चिम भारत में स्पर्शास्पर्श का विचार नगण्य है । भंगी ने एक बालटी छू दिया। वह बड़ी-बड़ी नाराज हुई । बालटी अपवित्र हो गई। घर से निकाल कर फेंक दी गई। सफैया का आना और जाना केवल पुरीषालाय तथा, पनारों की नालियों तक सीमित रह गया। घर में प्रवेश निषेध था। इस प्रकार न जाने कितने बरतन घर और दिल्ली में फेंक दिये गये थे। दिल्ली का सफैया नाराज नहीं हुआ। उसने हँसकर कहा–'बाबू यह उनका धर्म-कर्म है । इससे क्या होता है।' भंगी के प्रेम में कमी नहीं हुई। उसे भोजन तथा अन्य सामान पूरा मिलता था। उसमें कभी शिथिलता नहीं हुई, जो आधुनिक युग के घरों में कठिन है । हमारे क्षेत्र के हिन्दू-मुसलमान सभी किसी न किसी काम से दिल्ली आते थे। उनके साथ एक दिन मुझे चाय पीते हुए, मेरी स्त्री ने देख लिया। उस दिन से हमारा पारस्परिक स्पर्श भी छूट गया। लेकिन स्नेह एवं भक्ति में कमी नहीं हुई। वह निरन्तर बढ़ती गयी। मुझे यह अनायास का ब्रह्मचर्य जीवन सुखकर लगा। मैं इतना लिख सका, शान्ति से कार्य कर सका, उसका श्रेय मेरी स्त्री को है। वही मकानों का किराया वसूल कराती थी । खेती कराती थी। गाँवों पर जाती थी। वहाँ से अन्न लाती थी। मकानों की मरम्मत कराती थी। टैक्स देती थी। हमारे लिए कपड़ा, साबुन, तेल, कागज, स्याही आदि सभी खरीद कर मगवाती थी। इस प्रकार मुझे सांसारिक झंझटों से छुट्टी मिल गई थी। मुझे किसी बात की आवश्यकता का अनुभव नहीं हुआ। . प्रातःकाल आसन प्राणायाम करने के पश्चात, ठीक छह बजे दो प्याला चाय, साढ़े नौ बजे दिन भोजन, पाँच बजे सायं दो प्याला चाय तथा रात्रि में दूध मिल जाता था। प्रातः या सायं काल कलेवा या
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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