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जैनराजतरंगिणी
सन्दर्भ: सन्दर्भ ग्रन्थों का उल्लेख पाद-टिप्पणियों में है। मैंने राजतरंगिणी के अन्य भाष्यों का अनुकरण प्रस्तुत ग्रन्थ के भाष्य, अनुवाद शैली में किया है । स्थानों का मूल तथा प्रचलित नाम, भौगोलिक स्थिति के साथ दिया है। अर्थ बोधगम्य करने के लिये, अतिरिक्त शब्दों को कोष्ठों में रखा है। जहाँ अपने अनुवाद से स्वयं सन्तोष नहीं हुआ है, वहाँ दो या तीन अनुवाद दिये हैं। श्री दत्त का छायानुवाद यदि ठीक नहीं लगा है, तो उसका उल्लेख कर दिया है।
अनुक्रमणिका : श्लोकानुक्रमणिका देने की प्रथा संस्कृत ग्रन्थों में है। उसीका अनुकरण कर भाष्यों के श्लोकों की श्लोकानुक्रमणिका दी गयी है। श्लोकों की संख्या संस्करणों में एक समान नहीं है। कलकत्ता, दुर्गा प्रसाद तथा श्री कण्ठ कौल के संस्करणों की श्लोक संख्यादि भिन्न है । पाठों तथा पदों में अन्तर नगण्य है । इलोकानुक्रमणिका से श्लोक निकालने में सुविधा होती है। साथ ही नामानुक्रमणिका आधुनिक शैली के अनुसार दिया गया है। भविष्य के संस्करणों में स्पष्ट संख्या परिवर्धन, संशोधन तथा प्रत्यानयन के कारण घट-बढ़ सकती है । इसका अनुभव मैंने कल्हण राजतरंगिणी के प्रथम खण्ड के द्वितीय संस्करण में किया है। एतदर्थ नामानुक्रमणिका में श्लोकों की संख्या दी गयी है। इससे पृष्ठ तथा श्लोक दोनों एक साथ मिल जाते थे। श्लोक संख्या से पृष्ठ खोजने में कठिनाई नहीं होगी, क्योंकि प्रत्येक पृष्ठ में कितने श्लोक हैं, उनकी संख्या पृष्ठ के उपर ही पृष्ठ संख्या के ठीक सामने दूसरी तरफ दे दी गयी है।
पुस्तकालय मेरे कुटुम्ब में सन् १९०५ ई० से लोग जेल जाते रहे हैं। यह जेल जाने का क्रम सब १९४५ ई० तक चलता रहा। लाखों लोगों को ताम्रपत्र मिला। मुझे या मेरे कुटुम्ब को किसी ने स्मरण नहीं किया। मैं एक टुकड़े ताम्रपत्र का अधिकारी नहीं समझा गया । सत्तारूढ़ दल में नहीं था। अतएव मुझे तंग, परेशान एवं उपेक्षित करने में सत्ताधारी गौरव का अनुभव करते थे।
इस लम्बे काल में मेरा समय संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय तथा वहीं के भारतीय पुरातत्व विभाग के पुस्तकालयों में बीतने लगा। जाड़ा, गर्मी, बरसात, तीनों कितनी ही बार आये और चले गये। पसीना बहाता, भीगता, ठिठुरता, तीनों स्थानों से इतना चिपक गया कि न तो वे मुझे छोड़ते थे और न मैं उन्हें ।
तीनों स्थानों की यात्रा में परिवहन खर्च बढ़ गया। मध्याह्न पूर्व संस्कृत और मध्यान्यान्तर काशी विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में समय बीतता था । इन दश वर्षों में चेतन की अपेक्षा, जड़ पुस्तकें ही मित्र रह गयी थीं। मित्रता में, राजनीतिक होड़, अर्थ लाभ, पारस्परिक ईर्ष्या, द्वेष एवं स्पर्धा की गुंजाइश नहीं थी। सन् १९२१ से १९६७ के लम्बे काल के पश्चात, यही एक ऐसा समय आया था, जिसमें राजनीतिक सामाजिक, दार्शनिक वाद-विवादों, दलबन्दियों के उथल-पुथल से छुट्टी मिली थी। शान्ति का अनुभव हुआ था।
कष्ट इतना ही था। किसी पाठशाला, स्कूल, कालेज अथवा विश्वविद्यालयों से सम्बन्धित न होने के कारण अनेक पुस्तकें मुझे घर लाने के लिए नहीं मिल सकती थी। उन्हें पढ़ने के लिए वहीं जाना पड़ता था । मुख खोलने पर पुस्तकालय के अधिकारी सुविधा दे सकते थे। यह अच्छा नहीं लगा। किसी बात के लिए मुख नहीं खोला, जीवन के इस सन्ध्या काल में, प्रतिष्ठा को ठेस लगने का भय, मूर्तमान