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________________ १ : ३ : ३३-३५ ] श्रीवरकृता वितस्तोच्चतटे पुरं चिकीर्षुर्बभ्राम ३३. राजा उपद्रव की आशंका से वितस्ता के ऊंचे तटपर, नगर निर्माण की इच्छा से जयापीडर' के समीप भ्रमण किया । तिलकं अकरोत् स जैन तिलकं भूमेरका दर्पहृत्पुरम् नाम नदीतीरोन्नतस्थले || ३४ ॥ ३४. नदी तल के उन्नत स्थल पर भूमि के तिलक स्वरूप, अलका के दर्प का हरण करने , जैनतिलक ' नामक नगर निर्माण कराया । वाला, राज्ञो भूपस्तदुपद्रवशङ्कया । जयापीडपुरान्तिके ।। ३३ ।। ८३ दिदृक्षयेवात्र राजधानीरुचिच्छलात् । सौधभित्तिगता नूनं चन्द्रिकास्ते सुधासि ॥ ३५ ॥ ३५. राजा को देखने की इच्छा से ही, वहाँ राजधानी की प्रभा के व्याज से, निश्चय ही सोध-भित्ति-गत ( होकर) चन्द्रिका निवास करती थी । या भौतिक कारण । सांख्य मे प्रकृति से भिन्न पुरुष की स्थिति मानी गयी है । इसमे सत्य, रज एवं तम तीनों गुण सन्निविष्ट है । पाद-टिप्पणी : बम्बई का ३२ वा श्लोक तथा कलकत्ता का २४६वीं पंक्ति है । राजा ३३ (१) जयापीडपुर : वितस्ता के वाम तट पर सम्बल स्थान है । इस स्थान से कुछ दूर पर प्राचीन जयापीडपुर किंवा जयपुर का स्थान है । जयापीड ने मध्य आठवी शताब्दी में यहाँ राजधानी बनाया था । नोर तथा सम्बल के मध्य एक द्वीप स्वरूप स्थान पर ग्राम अन्दरकोट है । कोटा रानी की यही पर शाहमीर द्वारा वन्दी बनाकर ( जोन० : ३४०, ७८६ ) हत्या की गयी थी । शाहमीर जिसने अपने वंश का राज्य स्थापित किया था, इसी को अपनी राजधानी बनाया था। सुरक्षा की दृष्टि से उत्तम स्थान माना जाता था । श्रीवर कल्हण वर्णित प्रवर सेनपुर निर्माण की शैली पर, जैन तिलक निर्माण का वर्णन करता है। प्रवरसेन ने भी नगर निर्माण की इच्छा से रात्रि में भ्रमण किया था । उसे वैताल मिला। वैताल के सूत्रपात स्थान पर प्रवरसेन ने प्रवरसेनपुर अर्थात् वर्तमान श्रीनगर की स्थापना की थी ( रा० : ३ : ३३९ - ३४९ ) । श्रीवर ने पुनः उल्लेख १ : ३ : ३७, १ : ३ : ४४ तथा ४ : ५३५ में किया है । पाद-टिप्पणी : बम्बई का ३३वां श्लोक तथा कलकत्ता का २४७वीं पंक्ति है। ३४. ( १ ) जैनतिलक : जैनुल आबदीन ने वितस्ता के ऊँचे तट पर अन्दरकोट के समीप जैनतिलक नगर ( सन् १४६२ ई० मे ) बसाया था । वह जलप्लावन में बह गया। यह स्थान अन्दरकोट के समीप था ( मेहि० : पृ० ७६ ) । यही पर जयसिंह राजा राजपुरी या राजौरी का तिलक किया गया था ( १ : ३ : ४० ) । पाद-टिप्पणी : ३५. बम्बई का ३४वां श्लोक तथा कलकत्ता T २४८वीं पंक्ति है ।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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