SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १:१:४८-५१] श्रीवरकृता तदेशकालविषमावस्थाशतहतोऽपि सन् । स तत्र प्रेष्यवत् सैदपादशौचं समासदत् ।। ४८ || ४८. वह सैकड़ों देश, काल एवं विषम अवस्थाओं से व्याहत होकर भी, वहाँ पर भृत्य सदृश सैद (सैय्यिद) ने पाद प्रक्षालन किया। उद्गन्धतामयोत्पन्नस्फोटवैकृतशान्तये । वैद्यैर्वरत्राबद्धैकपादोऽभूज्जीवितावधि ॥४९॥ ४९. उग्र गन्धवाले रोग से उत्पन्न फोड़ा के विकार' की शान्ति के लिये वैद्यों ने उसे जीवन भर एक पैर रस्सी से बँधवाये रखा। तत्रोपायान बहून् कुर्वन् स्वदेशविभवाप्तये । यथाकथञ्चित् तत्रस्थः पञ्चशः सोऽवसत् समाः ॥ ५० ॥ (अतः परं किञ्चिद् ग्रन्थचरितं कालवशात् छिन्नं ) ५०. वहाँ अपने देश का विभव प्राप्त करने के लिये, बहुत उपाय करते हुए, यथाकथंचित वह पाँच वर्ष वहाँ स्थित रहा। [ इसके पश्चात का कुछ ग्रन्थ चरित कालवश छिन्न' हो गया है।] स सिन्धुहिन्दुवाडादिदेशान जित्वा बहिःस्थितान् । प्रतस्थे भुट्टदेशं स जेतुं सकटको नृपः ॥ ५१ ।। ५१. बाहर स्थित सिन्धु' एवं हिन्दुवाट देश जीतकर, सेना सहित वह नृपति भुट्ट देश प्रस्थान किया। का उल्लेख तवकाते अकबरी में जम्मू के राजा के यहाँ गलित कुष्ठ से अभिप्राय है। फोड़ा इतने लम्बे रूप में किया गया है । (पृष्ठ : ४४७) काल तक नही रह सकता । गलित कुष्ठ उन दिनों (३) चिब्भ : श्रीदत्त ने नाम चिक दिया है। आधुनिक औषधियों के अभाव में मृत्यु के साथ ही उत्तर तैमूर तथा मुगलकालीन भारत मे काश्मीर शरीर का त्याग करता था। मण्डल के बाहर भीमवर जिला था। जम्मू से ५६ (२) रस्सी : पट्टी बाँधने से अभिप्राय है । मिल दर है। प्राचीन काल में प्रसिद्ध था। मुगल पाट-टिप्पणी : काल में काश्मीर जाने के मार्ग पर पड़ता था। उस ५०. (१) छिन्न : लिपिक अपनी तरफ से समय यह चव या चिव राजाओं की राजधानी था। तत्कालीन जिस प्रति के आधार पर प्रतिलिपि कर जम्मू को यदि मद्र देशान्तर्गत मान लिया जाय, तो रहा था। उसमें कुछ अंश लुप्त था। श्रीवर स्वयं श्रीवर के वर्णन के अनुसार काश्मीर के बाहर जम्मू अपने ही ग्रन्थ के विषय में नही लिख सकता था से श्रीनगर आते समय, यह स्थान पड़ेगा। इस समय क्योंकि उसके समय ग्रन्थ पूर्ण रहा होगा। यह मूल छम्ब, देवा, चकला मुनावर के अतिरिक्त पूरी तहसील पाकिस्तान के पास अनिधिकृत रूप से है। का अंश नही प्रक्षिप्त मानना चाहिए। द्रष्टव्य : १:१:१६७ । पाद-टिप्पणी: पाद-टिप्पणी : पाठ-बम्बई। ४९. (१) विकार : घाव : मै समझता हूँ कि ५१. (१, ३) सिन्ध तथा भुट्ट : आइने अक
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy