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________________ १४ : १९-२० ] श्रीवरकृता अङ्गारक्षारचूर्णादिगन्धकौषधयुक्तिभिः 1 रागैः शिल्पिकृता लीला क्रीडालोकमरङ्गयत् ।। १९ ।। १९. अङ्गार, (कोयला क्षार (सोरा) चूर्ण आदि गन्धक औषध युक्त रागों (रंगों) से शिल्पियों द्वारा की गयी लीला' ने दर्शकों का मनोरंजन किया । तथा द्यौषधसंपूर्णामालाद् वह्निकणा घनाः । निर्यत्कुसुमसंपूर्ण स्वर्णवल्लीभ्रमं व्यधुः ।। २० ।। २०. औषध चूर्ण नाल से निकलते घने अग्निकण कुसुम से पूर्ण लता का भ्रम उत्पन्न कर रहे थे । है । सिद्ध पुराणो में कश्यप पिता एवं प्राधा के पुत्रों में से एक था। जिसे इसी जीवन में सिद्धि प्राप्त हो गयी है, उसे सिद्ध कहते है। १२३ ( ६ ) गन्धर्व : वेदों के अनुसार स्थान एवं अंतरिक्ष स्थान के गन्धवों का वर्ग विभिन्न है। च स्थान के गन्धर्य दिव्य गन्धर्व है उनसे सूर्य, सूर्य की रश्मि, तेज, प्रकाश इत्यादि प्राप्त होता है । इनका स्वामी वरुण है। मध्यस्थान ( अंतरिक्ष ) के गन्धर्व नक्षत्र प्रवर्तक है। उनसे मेघ, चन्द्रमा विद्यत आदि शास्त्र के आधार पर लिये जाते है। देव एवं मनुष्य गन्धवों में भी वर्गीकरण किया गया है । विद्याधर, अप्सरा, सिद्ध, गुह्यक एवं सिद्धों के वर्ग में आते है देवताओं के नामक 'हा-हा हू-हू' माने गये हैं । उनमे तुम्बरु, विश्वावसु विवरण प्रभूति है। चित्ररथ गन्धयों के राजा हैं। कश्यप तथा अरिष्ठा की सन्तति गन्धर्व कही जाती है। गन्धवों का देश हिमालय का मध्य भाग माना जाता है । गन्धर्व तथा किन्नर देशों का उल्लेख पुराणों में मिलता है। गन्धर्व जाति स्वरूपवान, शूर तथा शक्तिशाली थी । गन्धर्व विद्या का उल्लेख श्लोक ( १ . ५ : ९ ) मे है । मृत्यु के पश्चात् तथा पुनर्जन्म से पूर्व की आत्मा की संज्ञा है । गन्धर्वनगर का उल्लेख (३ : ४०८) में किया है। गन्धर्व विवाह आठ विवाहों में एक तैमा एक उपवेद है । जैन मान्यता के अनुसार — दस गन्धर्व - हाहा, हूहू, नारद, तुम्बरु, वासव, कदम्ब, महास्वर, गीतरति गीतरसु और बजवान है ( वि० सा० २६३ ) | अग्निपुराण में गन्धर्वो के ग्यारह गण माने गये है- अनाज, अंधार, रंभारी, सूर्यवर्चा, कृष हस्त सुहस्त, मूर्द्धवान, महामन्त, विश्वावसु तथा भी उनके गण माने गये है। कृशानु है । कुछ पुराणों मे तुम्बरु, गोमायु तथा नन्दि पाद-टिप्पणी १९. (१) लीला वर्णन से प्रकट होता है कि यह आतिशबाजी का प्रदर्शन था। पाद-टिप्पणी : उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ३५४ वी पक्ति तथा वम्बई संस्करण का २० वा श्लोक है । 1 २० (१) नाल आतिशबाजी मे बाण पत्र, चादर आदि नाल अथवा बाँस में या लौहनली मे भर दिये जाते है । उसमे आग लगाने से बाण आकाश मे जाकर अनेक रंगीन चिनगारियों में परिणत हो जाता है । चर्खी भी इसी प्रकार चलती है । पर्थी में गोलाकार वृत्त में कई नाल किंवा नलिका लगी रहती है। चादर में एक ही पंक्ति में कई नलिकाएँ लगी रहती है । उसमें आग लगाने पर वह भूमि पर चद्दर के समान गिरती है जबकि चल तथा बाग ऊपर की ओर चलते है नलियों से निकला जलता मसाला फूल के समान लगता है । इसी प्रकार मिट्टी के घरिया में जो नाल सदृश होता
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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