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________________ १४७ १:५ : ३५ ] श्रीवरकृता तिलप्रस्थागता यत्र तटिनी त्रिपुरेश्वरात् । संगच्छते सुटङ्कां यल्लङ्कां द्रष्टुमिवोत्सुका ॥ ३५ ॥ ___ ३५. जहाँपर त्रिपुरेश्वर' से आयी, तिलप्रस्था' नदी मानो लंका को देखने के लिये, उत्सुक होकर, सुटका की ओर जाती है । के साथ बहेलिया तथा नाव के साथ साकुनिक अभि- स्नान करने, निपटने तथा शयन एवं बैठने के लिये प्रायः अभिप्रेत है। दो-तीन या चार कमरे बने रहते है। वे भीतर (२) पोत : उक्त वर्णन डल लेक का है। खूब सजे रहते है। शिकारा छोटी नावें होती है । पक्षा अपना डना फैला कर पंख फडफडाता रहता है। उनपर गद्दा विछा रहता है और पीछे की तरफ नाव से पक्षी की उपमा दी गयी है। नाव के दोनों सज्जित एवं ढंकी रहती है। पर्यटक पीछे की तरफ ओर चप्पा (डाँड़े ) चलते है। वही पक्षी के पख बैठता है । माझी किवा हाँजी आगे की तरफ खुले मे है। नाव पर पाल लगता है। वस्त्र लगते है । बैठकर चप्पा से नाव खेता है । गगनगामी पक्षी या वस्त्र से नाव धूप या वर्षा बचाने के लिये सजा कलरव करते है। नावे के चलते समय 'चप्पा' के या ढक दिया जाता है। उन पर पताकाएँ भी चलने पर कल-कल ध्वनि उठती है। काश्मीर का लगायी जाती है। पाल और डाँड़ों से चलती नावें नौका-भ्रमण महाभारत काल से प्रसिद्ध रहा है । वह गहरे हरे जल पर, नील गगन मे उड़ते पक्षी की तरह भ्रमण सुखद इसलिये भी होता है कि डल का जल लगती है । डल का यह दृश्य वही समझ सकता है, स्थिर रहता है। उसमें धारा नही होती। वितस्ता जिसने डल लेक के तट पर खड़ा होकर, यह दृश्य देखा की धारा मे भी साधारण ऋतु मे तीव्रता नहीं रहती होगा। सुदूर प्राचीन काल से जल परिवहन काश्मीर अतएव भय नही होता । वितस्ता मे 'चप्पा' के साथ मे बहुत विकसित रहा है । वितस्ता, उल्लोल (उलर) ही बड़ी लग्गी से भी नाव ढकेल कर आगे बढ़ाते तथा डल में नावे परिवहन के काम में आती रही या पीछे हटाते हैं। है। नावे छोटी तथा बहुत बड़ी छोटे लाच या जहाज पाद-टिप्पणी : की तरह बनती थीं। श्रीवर का पोत शब्द अर्थपूर्ण है। वह यहाँ नाव शब्द का प्रयोग नहीं करता है। पाठ-वम्बई। नावें छोटी होती है। काश्मीर की बड़ी नावे समुद्र ३५. ( १ ) त्रिपुरेश्वर . त्रिफर आरा नदी आरपार जानेवाले लकड़ी के जहाजों जितनी ही तट पर है । सर्वावतार मे उसे महासरित कहा गया बड़ी होती है, मजबूत तथा ऊँची समुद्री जहाजों से कम है (क० ५ : ४६, १२३; ६ : १३५, ७ : १५१: होती है। जोन ६०१; जैन० : १ : ५ : १५, ६ : १३५) । नावें मुख्यतया चार प्रकार की होती है । 'खच्चू' (२) तिलप्रस्था : तिलप्रस्था नदी आरा ढोनेवाली बड़ी बड़ी नावें होती है। यह वितस्ता नदी की एक शाखा है । शालीमार से कुछ अधोभाग तथा ऊलर लेक में चलती है । डोगा दूसरी प्रकार जाने पर, यह शालीमार शाखा से अलग होकर डल की नाव होती है। उसमें रहने का स्थान बना होता लेक मे गिरती है। वहाँ उसे तेलबल नाला कहा है। हाउस बोट बहुत बड़े होते है। वे चौड़ाई की जाता है । नीलमत पुराण तिलप्रस्था का उल्लेख अपेक्षा लम्बे बहुत होते है। उनमें भोजन बनाने, करता है ( १३७०) (क० . ५ : ४६ )।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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