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जैनराजतरंगिणी
क्यों न रहे हैं । आज भी उनके बनाये पद प्रति घर में हैं। राजा यदि गुणी एवं विद्या रसिक होता है, तो, लोक भी वैसा ही हो जाता है।' (१:५:६४)
संस्कृत का प्रसार, उसका प्रभाव, विदेशी मुसलमानों को अखरता था। विदेशी मुसलमानों को काफी बड़ी संख्या काश्मीर में हो गयी थी। काश्मीरी एव गैर काश्मीरी का प्रश्न उठ खडा होता था। सुल्तान जैनुल आबदीन ने लोगों का ध्यान विद्यानुराग की ओर लगाकर, उन्हे एक दूसरे को समझने के लिये प्रेरित किया था। उसके लिये उसने देशी एवं विदेशी ग्रन्थो का अनुवाद कराया। श्रीवर लिखता है-'जो जिस भाषा मे प्रवीण है, वह उसी भाषा द्वारा उपदेश ग्रहण कर सकता है, लोक मे सब लोग नाना भाषा एवं लिपि नही जानते है (१:५:८२) अतएव संस्कृत भाषा आदि तथा फारसी भाषा में विशारद जनों द्वारा भाषा विपर्यय (अनुवाद) से तत तत् सब शास्त्रों को निर्मित कराया। (१:५:८०) धातु वाद, रस ग्रन्थ एवं कल्प शास्त्रों में उक्त गुणों को अपनी भाषा का अक्षर पढने के कारण यवन भी जानते है ।' (१:५:८४) संस्कृत भाषा में लिखी गयी दश राजाओ का ग्रन्थ राजतरंगिणी को फारसी भाषा द्वारा पढ़ने योग्य सुल्तान ने कराया। (१:५:८४) सुल्तान की युक्ति से म्लेच्छ लोग बृहत्कथा, तथा हाटकेश्वर संहिता, पुराणादि अपनी भाषा मे पढ़ते हैं' (१:५:८६) ।
चौथा सुल्तान मुहम्मद शाह केवल आठ वर्ष की अवस्था मे सिंहासन पर बैठा था। उसके ज्ञान एवं पाण्डित्य के विषय मे श्रीवर ने कुछ नही लिखा है। मन्त्रियों का प्रावल्य हो गया था। मन्त्री दल बदल के शिकार हो गये थे। हसन शाह के पश्चात् कला साहित्य आदि की तरफ देश की रुचि न होकर अन्तर्द्वन्द्व एवं संघर्षों में लग गयी। भारतीय तथा विदेशी मुसलमानों का प्रचुर प्रवेश काश्मीर में होने लगा। वे साहित्य, कला एवं दैनिक जीवन को प्रभावित करने लगे।
शास्त्रीय संगीत के स्थान पर भाषा मे भी गीत लिखे जाने लगे-'प्रबन्ध गीत में दक्ष, वह किसी समय राजा के समक्ष सर्व लीला नामक प्रबन्ध देशी भाषा मे गाया।' (३:२५६)
सुल्तान हैदर शाह के समय से फारसो एवं हिन्दुस्तानी भाषा में गीत काव्य की रचना होने लगी थी-'सुल्तान ने फारसी एवं हिन्दुस्तानी भाषा मे गीत काव्य की रचना की थी। जिससे कौन लोग उसकी प्रशंसा नही कर रहे थे।' (२:२१४)
जैनुल आबदीन ने स्वयं 'शिकायत' ग्रन्थ की रचना की थी। वह फारसी मे लिखा था। इस समय संस्कृत का स्थान फारसी लेने लग गयी थी। यद्यपि भाषा में संस्कृत शब्दों का ही बाहुल्य था।
संस्कृत का स्थान फारसी भाषा नही ले सकी परन्तु काश्मीरी भाषा की नवीन रूप-रेखा बनने लगी। काश्मीरी भाषा के लिए सत्रहवी शताब्दी तक भाषा या देश भाषा शब्द प्रचलित था। श्रीवर ने भाषा एवं देशभाषा दोनों का उल्लेख किया है। श्रीवर ने अप्रचलित शब्दो का प्रयोग किया है। वे शुद्ध परिष्कृत संस्कृत शब्द नहीं है। फारसी-अरबी नामों का संस्कृतकरण किया गया। असंस्कृत शब्दों का प्रयोग प्रचुर मिलता है-जैसे टोपी। (३:५५७) भाषा के अतिरिक्त, काश्मीर में स्थानीय बोलियाँ भी बोली जाती थी। उनमे पुगूली, किश्तवाड़ी, 'डोग, सिराजी, रामबनी, रिआसी आदि है। सिरामपुर से बाइबिल का प्रथम काश्मीरी भाषा का अनुवाद प्रथम संस्करण शारदा लिपि में ही प्रकाशित हुआ था। कालान्तर मे फारसी, रोमन लिपि और काश्मीरी भाषा मे अनुवाद प्रकाशित हुये थे। सन् १४०० से १५५० ई० में काश्मीरी