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________________ जैनराजतरंगिणी [१:५:८-११ १३८ यत्र वापीगता हंसा गीतशंसां स्वनच्छलात् । कुर्वन्तीव समीपस्था गायद्गीताङ्गिसंस्कृतैः ॥ ८॥ ८. जहाँ पर समीपस्थ वापीगत' हंस शब्द व्याज से, मानो गान करते, गायकों की गीत की प्रशंसा करते थे। यत्र खर्वीकृतारातिः सुपर्वाधिपतिर्यथा । सर्वाहः सुखगन्धर्वचर्वणैरनयत् सुखम् ॥ ९॥ ९. जहाँ पर इन्द्र के समान शत्रु को नीचा कर, सुखपूर्वक गन्धर्व विद्या का आनन्द लेते हुए, सब दिन व्यतीत करता था। यदन्तरे सुविस्तीर्णः सर्वदर्शनमण्डपः । काचभित्तिमयो भाति त्र्यश्रसिंहासनोज्ज्वलः ॥१०॥ १०. जिसके मध्य सुविस्तीर्ण, काचमय, भित्तिवाला तथा त्रिकोण सिंहासन' से सुन्दर सर्वदर्शन मण्डप शोभित होता था। यद्गर्भाद् धूपसंदर्भनिर्भरान्नृपसंश्रितात् । वातोऽपि सफलो यातः प्रातर्घाणसुखप्रदः ॥ ११ ॥ ११. नृप सेवित, धूप-गन्ध-व्याप्त, जिसके ( राजप्रासाद ) मध्य से प्रातः सुखप्रद वायु भी सफल होकर, निकलती थी। पाद-टिप्पणी: प्रचलित थी। मुसलमानी आक्रमण एवं भारत के पाठ-बम्बई। पराधीन हो जाने के पश्चात्, इरानी तथा मुसलिम देश प्रभावित संगीत का प्रचार दरबारों का आश्रम ८. (१) वापी : वापी को दीपिका या बावली पाकर प्रचलित हो गया। भारत के प्रदेश एक दूसरे कहते है। वापी बड़ा आयताकार जलाशय होता से दूर थे। उनमें अराजकता के कारण सम्पर्क नहीं है। उसमें शिलाबद्ध सीढ़ियाँ होती है, जिससे उतर, रह गया था। शास्त्रीय संगीत के स्थान पर देशी जल लिया जा सकता है। सरोवर, कूप, वापी, संगीतों का विकास होने लगा। शास्त्रीय संगीत तड़ाग सबके अर्थों में अन्तर है-वापी चास्मिन्मरकत शिलाबद्ध सोपान मार्गा-मेघ० : ७६ । परम्परा मिश्रित तथा स्थानीय रूप, व्यापक भारतीय रूप के स्थान पर लेने लगी। नाम भी गन्धर्व विद्या पाद-टिप्पणी: से बदल कर दूसरा पड़ गया। ९. (१) गन्धर्व विद्या : ज्ञान विद्या, संगीत । पाद-टिप्पणी : . कला, शास्त्रीय संगीत को गन्धर्व विद्या कहते हैं। भरत मनि, जिनका काल लगभग दूसरी शती ईसा १०. (१) सिंहासन : सोने का बना था पूर्व रखा जाता है, उस समय से सारंगदेव तेरहवीं (२६)। शताब्दी तक शास्त्रीय संगीत की परम्परा भारत में (२) मण्डप : दरबारे-आम ।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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