SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११८ जैनराजतरंगिणी [१:४:७-१० नानाग्रामगताश्चारुस्वररागमनोहराः यत्र गीता रसस्फीता बभुर्युवतयोऽपि च ॥७॥ ७. जहाँ पर, नाना ग्रामगत, चारु, स्वर एवं राग से मनोहर, रसपूर्ण गीत तथा युवतियाँ शोभित थीं। कलाकलापवेत्तासीन्मानमानससौख्यभृत् । रङ्गरगन्द्रचिोको विद्याविद् यातसंशयः॥ ८॥ ८. लोग कला-कलाप के वेत्ता, मान से सुखीमन, विद्याविद्, संशयरहित तथा रंगमंच के प्रति रंगीन रुचि रखनेवाले थे। प्रतितालैकतालादिबहुतालविभूषितम् तत्र ताराचनाराचसंज्ञानं विदधुर्नटाः ॥९॥ ९. वहाँ पर, वह लोग प्रति ताल', एक ताल आदि बहुताल३ विभूषित ताराच-नाराच का ज्ञान प्राप्त (हाव-भाव प्रकट) करते थे। उत्सवा नाम कामास्त्रं गायनी नयनोत्सवा । लास्यताण्डवनृत्यज्ञा न केषां रञ्जिकाभवत् ॥ १० ॥ १०. लास्य', ताण्डव नृत्य को जाननेवाले नैनोत्सव एवं कामदेव का अस्त्रभूत उत्सवा नाम्नी गायिका किसके लिए मनारजिका नहीं हुई ? सुसंगत वर्णन प्रबन्ध-काव्य मे होता है-विच्छेद नट लोग नाचते है। उसमे अनेक तालों का मिश्रण माप भुवि यस्तु कथा प्रबन्धः। (का० २३९), क्रिया होता है। प्रबन्धादयमध्वराणाम् (रघु० ६ : २३), अनुज्झितार्थ . (४) तारा-नारा = तारा और नारा छन्द के मात्रावृत्त थे जो ताल के लिए उपयोगी थे। तारा संबन्धः प्रबन्धों दुरुदाहरः (शि० २/७३), प्रथित नव प्रकार का था-प्राकृत, भ्रमण, पात, बलान, यशसां भासक विसौमिल्लकविमिश्रादीनां प्रबन्धाति- चलन, प्रवेशन, समुद्दत्त, निष्क्रम, निवर्तन । क्रम्य (मालावि०१)। प्रबन्ध गीत का उल्लेख श्रीवर नारा मात्रावृत्त निम्न प्रकार का था-ल ग ३ : २५६ में किया है। लग लग, लग, ल = लघु : ग= गुरु । पाद-टिप्पणी: पाद-टिप्पणी: ९. (१) ताल = ताल की परिभाषा की गयी है द्वितीय पद द्वितीय चरण का पाठ संदिग्ध है। एके नैव द्रुतेन स्यादेक तलिति संज्ञया । उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ३४४ वी इसको एकताली ताल कहते हैं । इसमें केवल पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का १० वा श्लोक है। 'द्रुत' ०० होता है। १०. (१) लास्य = वाद्य एवं संगीत के साथ (२) प्रति ताल = इसकी परिभाषा है- नृत्य, जिसमें प्रेम की भावनायें विभिन्न हाव, भाव 'लो द्रुतौ प्रति ताल स्याद ।' तथा अंग विन्यासों द्वारा प्रकट की जाती हैं। लास्य एक लघु तथा दो द्रुत मात्रा का ताल होता है। का अर्थ नट, नर्तक, अभिनेता तथा लास्या का ०० आजकल प्रयोग ने नहीं आता। नर्तकी होता है । सुकुमार अंगों तथा जिसमें शृंगार (३) बहताल = अनेक तालों से विभूषित आदि कोमल रसों का संचार होता है।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy