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जैन राजतरंगिणी
सूर्य संक्रान्तयः क्रूरदिनेष्वाप्तास्तदा भाविक्रूरफलोत्पादसादचिन्तन भीतिदाः
१६ उस समय सूर्य की संक्रान्ति क्रूर दिनों में हुयी थी, जिसने प्रजाओं के भविष्य मे क्रूर फल की उत्पत्ति तथा विनाश के चिन्ता का भय उत्पन्न कर दिया ।
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मन्निर्माता क्षयं यास्यत्ययं किमिति दुःखिता । राजधान्यरुदच्छवतलोलूक ध्वनिच्छलात्
विशाम् ।
[ १ : ७ : १६-१९
।। १६ ।।
१७. मेरा यह निर्माता नष्ट हो जायगा, इसी से छत्र के नीचे उलूक' की ध्वनि के व्याज से, राजधानी रो रही थी ।
आता है तो सूर्यग्रहण लगता है । इसी प्रकार सूर्य एवं चन्द्रमा के मध्य पृथ्वी आती है, तो चन्द्रग्रहण लगता है । भारतीय ज्योतिष के अनुसार वर्ष - काल के अनुसार भिन्न-भिन्न परिणाम घटित होते हैं ।
दृष्टोऽम्बरे द्वितीयस्यां सुधांशुस्तत्र तैर्जनैः । उत्तान इव भूपेशमन्यं सूचयितुं विशाम् ।। १८ ।।
एक ही पक्ष में चन्द्र एवं सूर्यग्रहण का होना घोर अशुभ है । अकाल, असमय वृष्टि आदि सर्वशोभन नाशन होता है । राहु, चन्द्रमा तथा केतु सूर्य का ग्रास जैन मान्यता के अनुसार करता है ।
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१८. वहाँ पर लोगों ने द्वितीया को आकाश में, प्रजाओं को अन्य राजा की सूचना देने के लिये ही, मानों उत्तान हुये, चन्द्रमा को देखा ।
महाघोरमनावृष्टिकृतं
पाद-टिप्पणी :
१७. ( १ ) उलूक ध्वनि: यह अशुभ मानी जाती है। उल्लू तथा कुत्ता का रोना मृत्यु का सूचक
अत्रान्तरे उदभूदन्यदेशेषु
१९. अन्य देशों में इसी बीच दुर्भिक्ष' एवं उपद्रवकारी, महाघोर, अनावृष्ट कृत, भय उत्पन्न हुआ ।
भयम् । दुर्भिक्षोपद्रवावहम् ।। १९ ॥
है। उल्लू दिन में छिपा रहता है। रात्रि में निकलता है। छोटे पक्षियों को पकड़ कर खाता है । जाड़ स्थानों में रहता है । बोली अशुभ एवं भयावनी होती है । घर मे उल्लू का रहना अशुभ माना जाता है । तान्त्रिकगण इसके मांस का प्रयोग उच्चाटन आदि क्रियाओं में करते हैं। सभी देश एवं जातियों में अभक्ष्य माना जाता है । उल्लू बोलने का मुहावरा उजड़ने के अर्थ में प्रयोग किया जाता है । पाद-टिप्पणी :
१९. (१) दुर्भिक्ष : सन् १४६९ ई० में मध्येशियन, तुर्किस्तान आदि स्थानों में भयंकर अकाल पड़ा
था ।