SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०० जैनराजतरंगिणी [२:१७१-१७४ शयनमण्डपम् । कक्षाक्षिप्तभुजैर्भृत्यै नीतः ध्वस्तच्छाय इवादर्शः संमूर्च्छत्र शयनेऽपतत् ॥ १७१ ॥ १७१. भृत्य उसकी कॉख में हाथ डालकर शयन मण्डप में ले गये, नष्ट छाया दर्पण तुल्य वह शयन पर पड़ गया । मिजोऽस्यावमन्याप्तान् कोऽपि योगी चिकित्सकः । विषोत्कटौषधस्तस्य यतते स्म कृतव्यथः ।। १७२ ।। 1 १७२. कोई योगी चिकित्सक उसके विश्वस्त लोगों की बात न मानकर विष से उग्र प्रभाववाले औषध को प्रयोग से, उसे व्यथितकर प्रयास (यत्न) कर रहा था । तस्योपधप्रयोगेण प्राप्तदाहो दिवानिशम् । काङ्क्षति स्म स्वमरणं क्षणमात्रं न जीवनम् ।। १७३ ।। 1 १७३. उसके औषध प्रयोग से उसे दिन-रात दाह' होने लगा, जिससे वह क्षणभर, जीवन की नही अपितु अपना मरण चाह रहा था। राजधान्यन्तरे राजसुतः आयुक्ताझदसंयुक्तस्तद्दिनेषु स्थितिं १७४. राजधानी में उन दिनों राजपुत्र आयुक्त' रहने लगा । फिरिश्ता लिखता है— 'एक दिन शाम को सुल्तान अपने राजप्रासाद के अलिंद पर पानोत्सव कर रहा था, उसने बहुत मदिरा पी ली थी। नीचे उतरने की कोशिश मे उसका पाँव फिसल गया और बहुत ऊँचाई से गिरने के कारण भर गया ।" पीर हसन लिखता है एक दिन ग दार दीवानखाना मे शराब के पीने मे मशगूल था कि मस्ती की हालत में उसका पाँव फिसल गया और जमीन पर गिरते ही उसने जान दे दी ( १८८ ) ।' पाद-टिप्पणी : - १७२. ( १ ) योगी चिकित्सक : झाड़-फूँक मन्त्रादि जप कर आराम करनेवाले लोग जिन्हे ओझा कहते हैं । श्लोक २०२ मे काँच मण्डप में वैताल लगने की बात श्रीवर जनश्रुति के आधार पर करता है— नाराज होने पर भूत, जिन या वैताल लोगों को लग जाते हैं । नाना प्रकार व्याधि उत्पन्न स्वकान्तिके । व्यधात् ॥ १७४ ॥ अह्मद के साथ अपने पिता के समीप हो जाती है। उसकी दवा न कर, भूत का प्रभाव समझ कर झाड़ने, फूँकने, ओझा या भूत उतारनेवाले योगी अथवा फकीर को बुलाया जाता है जो अपनी मन्त्रशक्ति से भूत-बाधा दूर करने का दावा करते है । पाद-टिप्पणी १७३. (१) वाह गरमी लगना पेट में आग जलने जैसा अनुभव होना । पाद-टिप्पणी : १७४ (१) आयुक्त शाब्दिक अर्थ एक अधिकारी होता है । पाणिनि ( २ : ३४० ) ने इसका अर्थ सेवक तथा अधिकारी के रूप मे किया है । आयुक्तक एवं आयुक्त शब्द समानार्थक माने गये है । आयुक्तक शब्द कामसूत्र ( ५ : ५ : ५ ) तथा कामन्दक ( ५ ८२ ) मे प्रयोग किया गया है | विजय स्कन्दवर्मा के अनुदान ( ई० आई ११२५०) पहाड़पुर फलक गुप्त सम्बत् १५९;
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy