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________________ जैनराजतरंगिणी [१:१ . ९४ उनका विवाह सम्बन्ध राजवंशों में होता था। कल्हण तथा अन्त मे तन्त्री पद प्राप्त करता था। सर्वएवं जनराज के समय कोई भी व्यक्ति डामर हो तन्त्राधिकारी सभी विभागों का निरीक्षक होता था। सकता था। केवल उसे सफल कृषक अपने को तन्त्र अधिकारी को तन्त्र अध्यक्ष भी कहते थे। प्रमाणित करना पडता था । कल्हण ने उन्हे अशिष्ट तन्त्रपाल तन्त्राधिकारी का वही स्थान था जो आचरण युक्त एवं खर्चीला चित्रित किया है। तन्त्राधिकारी था। तन्त्र कर्म राजकीय विभाग था। तन्त्रनायक का सम्वन्ध सेना अथवा शासन डामर नगरों के बाहर निवास करते थे । शस्त्र से था। तन्त्रपाल मुख्य सेनाधिकारी होता था। धारण करते थे। समरागण में वीरगति प्राप्त इसी प्रकार महातन्त्राध्यक्ष, सर्वतन्त्राधिकृत, तन्त्रकरने पर उनकी स्त्रियाँ सती होती थी। हिन्दू राज्य पति, तथा महातन्त्राधिकारी शब्दों का भी प्रयोग के पतन के कारण, अनियन्त्रित एवं उच्छृङ्खल डामर मिलता है। कही-कही महासम्मत, महादण्डनायक थे। मुसलिम काल में उनका पूर्णरूपेण दमन कर भी कहा जाता था। एक मन्त्रणदायक, रूप में भी दिया गया था। वे मुसलिम धर्म स्वीकार कर लिये उसका उल्लेख अभिलेखों में मिलता है। उसे तन्त्रथे। उनकी शक्ति का विकास क्रमिक हुआ है। पालाधिस्थापक तथा तन्त्रपालधिष्ठापक भी स्थानराजा अवन्तिवर्मा के समय वे संघटित एक शक्ति स्थान पर कहा गया है। तन्त्रपति अथवा तन्त्रीश के रूप मे मिलते है। राजा चक्रवर्मा राज्य सिहासन शब्द धर्म अधिकारी भी राजतरंगिणी में माना गया से च्युत कर दिया गया, तो वह संग्राम डामर के गया है ( रा० : ८ : २३२२)। वृहद्तन्त्रपति यहाँ शरण लिया था। डामरों के कारण चक्रवर्मा ने मुसलिमकालीन अधिकारी 'सदरुसदर' तुल्य था। पुनः राज्य प्राप्त किया था । राजा उन्मत्तवन्ती तथा बह सुल्तान के मुख्य न्यायपति, राजकीय दान विभाग रानी दिद्दा के समय प्रभावशाली हो गये थे। काश्मीर का अधिकारी माना गया है। तन्त्रावय का अर्थ मे लोहर वंश के राज्य पर, प्रतिष्ठित होनेपर, डामरों जुलाहा या बुनकर तथा तुन्नवाय का अर्थ दर्जी था। की शक्ति पूर्णरूपेण विकसित हो गयी थी रजा तन्त्रियों का अत्यधिक उल्लेख राजतरंगिणी मे संग्रामराज से उत्कर्प के समय मध्य उनकी स्थिति किया गया है (रा० : ५ : २४८-२५०, २५५, अर्ध स्वतन्त्र राज्यों के समान हो गयी थी। वे अवध २६०, २६५, २६६, २७४, २७५, २८७, २८९, के ताल्लुकेदार अथवा राजस्थान के जागीरदार के २९३, २९४, २९५, ३०२, ३२८, ३३१, ३३८समान थे । डामर दुर्ग तथा कोटों के स्वामी थे । एक ३४०, ४२१, ४३१; ६ : १३२; ७ : १५१३; ८ : दूसरे का दुर्ग तथा कोट लेने के लिये परस्पर संघर्ष २९२, ३०३, ३७५, ५१०, ५९७, ९२८ ) । श्रीवर करते थे। उन्हे कल्हण लवण्य भी मानता है । लवन्य ने तन्त्राधिकार का उल्लेख (१ : ३ : ४१ ) में वर्तमान मुसलिम क्रम 'लुन' है। वे आगे चलकर किया है। राजाओं के बनाने-बिगाडने वाले हो गये थे। तन्त्री का सर्वप्रथम प्रयोग कल्हण ने रानी डामर : द्रष्टव्य रा० : ४ : ३४८ : लेखक । सुगन्धा ( सन् ९०४-९०६ ई० ) के सन्दर्भ में किया (२) तन्त्री : सैनिक, सेना, शासन आदि है। तन्त्रि पदादिकों का इसी समय कुल समूहबद्ध अर्थ में दक्षिण भारतीय आम लेखों मे तन्त्र शब्द हुआ अर्थात् उन्होंने अपना एक संघ बना लिया था । का प्रयोग किया गया है। सेना मे मुख्यतया पदादित इस समय से तन्त्रियों की शक्ति बढ़ने लगी थी सेना को तन्त्री कहा गया है। तन्त्र अधिकारी का (रा: ५ : २४८ )। तन्त्रियों की शक्ति राजा अर्थ शासनाधिकारी, राज्यपाल के भातरिया अभि- पार्थ के उत्तराधिकारी तथा शंकरवर्धन के चक्रवर्मा लेख में मिलता है। उसके अनुसार मन्त्री, सचिव के द्वारा ( द्रष्टव्य टिप्पणी : रा० . ५ : २४८ खण्ड
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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