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________________ ४८ जैन राजतरंगिणी यावद्युद्धं करिष्यामस्तावदेव विलम्ब्यताम् । हतेष्वस्मासु कर्तव्यं यत् पुनस्तत् समाचर ॥ १४० ॥ जो १४०. 'जब तक हम लोग युद्ध करेंगे, तब तक ठहरिये, हमलोगों के मारे जाने पर, कर्तव्य है करना । [१ : १. १४० - १४३ अस्मदुक्तं न गृह्णासि यदि त्वं पितृवञ्चितः । त्वय्येवानुचितं कृत्वा पुनर्यामो दिगन्तरम् || १४१ ।। १४१. 'पिता के बहकावे में पड़कर, तुम यदि हम लोगों की बात नही ग्रहण करते, तो तुम पर ही अनुचित कार्य ( मारकर ) करके, पुनः दिगन्तर में हम लोग चले जायेंगे ।' निर्भर्त्सना वाक्यजातभीतिनृपात्मजः । इति ततश्चिन्तार्णवे मग्नो युद्धश्रद्धामगाहत ।। १४२ ।। १४२. इस प्रकार की भर्त्सना युक्त बातों से भयभीत होकर, राजपुत्र चिन्ता - सागर में मग्न होकर, युद्ध के प्रति श्रद्धालु हो गया । अत्रान्तरे द्विजं तादृगवस्थं वीक्ष्य भूपतिः । मुरारातिरिव क्रुद्धो युद्धसन्नद्धतां दधे ॥ १४३ ॥ १४३. इसी बीच में ब्राह्मण को उस अवस्था में देखकर राजा 'मुरारी' (कृष्ण) के समान क्रुद्ध होकर युद्ध के लिये सन्नद्ध हो गया । 'हतो वा प्रप्स्यापि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ' (२ : ३७ ) । पाद-टिप्पणी : १४१. ( १ ) दिगन्तर : द्रष्टव्य टिप्पणी : १ : ११२४ । पाद-टिप्पणी : १४२. ( १ ) युद्ध अपने अनुयायियो द्वारा वह युद्ध करने के लिए अनिच्छापूर्वक बाध्य कर दिया गया था ( म्युनिख पाण्डु० : ७४ बी० ) । फिरिस्ता लिखता है - 'हाजी खां की सेना ने बिना उसके आदेश के ही युद्ध आरम्भ कर दिया ( ४७९ ) । ' पाद-टिप्पणी : १४३ (१) मुरारी : श्रीवर ने महाभारत की घटना की ओर संकेत किया है। भगवान श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर, दुर्योधन की सभा में गये और युद्ध से विरत होने तथा सन्धि करने के लिए जोर दिया। दुष्टबुद्धि दुर्योधन ने अपने मित्रों के साथ मन्त्रणा कर, कृष्ण मुरारी को बन्दी बनाने का संकल्प किया। इस षड्यन्त्र का भेद सात्यकि जान गये और सभा में दूत के बन्दी बनाने की दूषित मनोवृत्ति को अनुचित बताते हुए, उसे धर्म, अर्थ एवं काम के विपरीत बताया। सात्यकि की बात सुनते ही भगवान श्रीकृष्ण ने सभा मे ही ललकारा कि यदि दुर्योधन आदि मे शक्ति हो, तो वे बन्दी बनाये । भगवान ने अट्टहास किया। उनका विराट् स्वरूप प्रकट हो गया। लोगों ने आश्चर्यमयरूप का दर्शन किया । भूपाल गण विस्मित हो गये । पृथ्वी कम्पित हो उठी । समुद्र क्षुब्ध हो गया। भगवान का शान्ति सन्देश ठुकरा दिया गया । उसका अवश्यम्भावी परिनाम महाभारत हुआ। जिसमें कृष्ण रूप राजदूत का अपमान करने वाले नष्ट हो गये ( उद्योग० : १२९१३२ ) ।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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