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________________ १:३:५८-६०] श्रीवरकृता गर्वखर्वीकृतारातिः सुपर्ण इव लीलया। सर्वां रात्री स गान्धर्वचर्वणैरनयत् सुखम् ।। ५८ ।। ५८. वह शत्रुओं के गर्व को समाप्त करके, लीलापूर्वक गरुड़ की तरह समस्त-समस्त रात्रि गान्धर्व चर्वण' (नृत्य, गीत-श्रवण) पूर्वक सुख से व्यतीत किया। वन्योऽसौ गुणिबान्धवो दिनपतिर्यस्योदयानुग्रहाद् दृष्टा कुत्र न सर्वदर्शनसुखात् सच्चक्रहर्षस्थितिः । निन्द्यौ तस्य सुतो पितुर्विसदृशौ लोकव्यथोत्पादकौ यौ कालोऽयमिति प्रथामुपगतौ क्रूरग्रहौ निश्चितौ ॥ ५९ ।। ५९. जिसके उदयानुग्रह से सर्व दर्शन का सुख प्राप्त करने के कारण, चक्रवाक् प्रसन्न हो जाते है, उस सूर्य के समान, जिस राजा के उदय अनुग्रह से, सर्व दर्शनों को सुख-सुविधा प्राप्त होने से, कहाँ पर साधु समुदाय में हर्ष की स्थिति नहीं देखी गयी? वह गुणियो का बन्धु वन्दनीय है। उसके निन्दनीय, पिता के प्रतिकूल, ससार को दुःखदायी, जो दोनों पुत्र 'यह काल है'-इस प्रकार प्रसिद्ध हो गये थे, वे क्रूर ग्रह' माने गये। अत्रान्तरेऽनुजद्वेषवशात् कलुषिताशयः । आदामखानो निःशेषं देशमाक्रामयद्धठात् ॥ ६० ॥ ६०. इसी बीच अनुज के द्वेषवश, कलुषित हृदय आदम खाँन हटात् सम्पूर्ण देश पर आक्रमण कर दिया। अध्यायन ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् । ५८. (१) चर्वण . स्वाद किवा आनन्द लेने होमो देवो वलि तो नृपज्ञोऽतिथि पूजनम् ।। से अर्थ अभिप्रेत है। मनु० : ३ : ७० पाठ, होम, अतिथि सेवा, तर्पण, बलि पंचयज्ञ पाद-टिप्पणी: है। (१) पाठ-अर्थात् वेदाध्ययनादि ब्रह्मयज्ञ है। (२) हवन-देवयज्ञ है। (३) अतिथि सपर्या-अति बम्बई का ५८वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की थियों को अन्नादि से सन्तुष्ट करना मनुष्य का नयज्ञ २७२वी पक्ति है। है। (४) तर्पण-पितरों को अन्न-जल से सन्तुष्ट ५९ (१) क्रूर ग्रह : शनी, मंगल एवं सूर्य करना पितृयज्ञ है। (५) वलि-जीवों को अन्नदानादि से सन्तुष्ट करना भूतयज्ञ है । क्रूह ग्रह हैं। पाद-टिप्पणी : पाद-टिप्पणी: बम्बई का ५७वों श्लोक तथा कलकत्ता की ६०. बम्बई ५९वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की २७१वी पंक्ति है। २७३वी पंक्ति है।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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