________________ 304 जैनराजतरंगिणी [2:188-192 इत्याद्यनुचितं यत्तच्चोक्त्वा तं प्रत्यमोचयत् / यैः स ग्रथितकन्थोऽभूद राज्यार्थे कृतभावनैः / अप्राप्यैतांस्तथा मत्वा निराशः समपद्यत // 188 / / 188. इस प्रकार जो अनुचित था, उसे कहकर, उसे मुक्त किया। राज्य प्राप्ति हेतु जिन लोगों ने उसे उत्साहित किया था, उन्हें न पाकर तथा उस परिस्थिति को जानकर (वह) निराश हो गया। प्रत्यासन्ने नाशे रूद्धजलौघस्य बद्धमूलस्य / कुपथात् प्रसरत्यादौ धृतिरिव सेतोमतिर्जन्तोः // 189 // 189. नाश प्रत्यासन्न होने पर, रुद्ध जल समूह वाले तथा बद्धमूल सेतु के धृति' ( ठहराव ) सदृश प्राणी को बुद्धि प्रारम्भ में कुपथ की ओर चलने लगती है। युक्तमायुक्तवाक्यं चेदग्रहीष्यन्नयान्वितः / तुरगाधर्जितं सर्वमदास्यच्चेत् स्वयं गतः // 190 // 190. यदि नीति युक्त होकर, वह आयुक्त की उचित बात मान लेता तथा यदि स्वयं जाकर, तुरग आदि अर्जित सब कुछ ग्रहण कर लेता अथवाप्तं तमेकं चेदहनिष्यदलोन्नतः / कौशं हर्तुमयास्यच्चेत् स्थितं पितृपुरान्तरे // 191 // 191. अथवा यदि प्रबल वह एकाको आये, उसे मार डालता या पितृपुर में स्थित कोश हरण करने के लिये चला जाता अथवा बाह्यदेशं चेदगमिष्यत् तदध्वना / निवृत्तः क्रमराज्ये चेदाक्रमिष्यच्छनैर्महीम् / / 192 / / 192. अथवा यदि बाह्य देश चला जाता और उसी मार्ग से लौटकर, यदि धीरे से, क्रमराज्य की भूमि पर, आक्रमण कर देता पाद-टिप्पणी : "स" पाठ-बम्बई / 188. उक्त श्लोक श्री कण्ठ कौल संस्करण के तृपदीप श्लोक संख्या 186 का प्रथम तथा द्वितीय पद है। कलकत्ता तथा बम्बई संस्करणों का १८७वां श्लोक है। पाद-टिप्पणी: 192. ( 1 ) बाह्य देश : द्रष्टव्य टिप्पणी : 1:1:124 / (2) क्रमराज्य : कमराज या कामराज / द्रष्टव्य टिप्पणी : 1:1 : 40 /