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२ : ३०-३२] श्रीवरकृता
२६१ श्रीजैननृपतौ शान्ते मूर्धारूढशिलोपमे ।
अबाधन्त पुनर्लोकं व्याला इव नियोगिनः ।। ३० ॥ ३०. शिरोभाग की ओर निहित शिला सदश, जैन नृपति के शान्त हो जाने पर, व्यालों के समान नियोगी' ( अधिकारी ) पुनः लोक को पीड़ित करने लगे। विशुद्धपक्षो रुचिरञ्जिताशः
कलाकलापो विबुधोपजीव्यः । पूर्णेन्दुनानेन समोऽस्ति कोऽन्यः
कलङ्क एको यदि नास्य दोषः ।। ३१ ॥ ३१ विशुद्ध यशशाली, रुचि से दिशाओं को रंजित करता, कला-कलाप युक्त एवं विवधोपजीव्य, इस पूर्णचन्द्र के समान, हमारा कौन है, यदि इसमें एक कलंक दोष न हो।
श्रुत्वास्मद्रूषणाः सोऽयं सर्वान् हन्तीति कद्धियाः ।
ऐक्यं पुरप्रवेशार्थं मिथस्तद्रुषका व्यधुः ॥ ३२ ॥ ३२. 'हमलोगों के दोषों को सुनकर, वह सब लोगों का वध कर देगा, इस कुत्सित बुद्धि से, उसके दूषक' लोग पुर में प्रवेश हेतु परस्पर एकता कर लिये।
पाद-टिप्पणी :
तथा अधिकारियों को जनता पर अन्याय तथा दमन ३०. नियोगी : तहसीलदार, एक अधिकारी, करने की छूट दे दिया (४७५)। द्र० ३ : ३०; कार्यनिवाहक । तिलगू भाषाभाषी प्रदेश मे नियोगी क० रा० : ६:८। ब्राह्मणों की एक जाति है। वे पूर्वकाल मे राज्य- पाद-टिप्पणी: भृत्त, सेवक किंवा अधिकारी थे । कालान्तर में वंशा
३१. उक्त श्लोक का भावार्थ होगा-'इन नुगत कार्य करते रहने के कारण नियोगी उनके कुल गणों से युक्त राजा भी है, परन्तु इसमें भी दोष का नाम पड़ गया। नियोगी कोई गोत्र या जाति
जाति है। विशुद्ध पक्षवाले लोगों की आशाओं को प्रकानहीं है । यह एक पदगौरव हिन्दू राज्यकाल मे था।
। शित करनेवाला कला-कलापों से युक्त विद्वानों के अब तक चला आता है, जैसे काश्मीर में ब्राह्मणों लिए उपजीव्य इस राजा के समान दूसरा कौन है के कुछ वंश खजांची, शराफ आदि कहे जाते है। यदि इसमें भी एक कलंक दोष न होता।' उक्त कर्म करने के कारण नाम प्राप्त किये है । द्र०:
पाद-टिप्पणी: १ : ६ : १३६ ।
पाठ-बम्बई। फरिश्ता लिखता--सुल्तान को बाद के कामों से जनता को निराशा हुई, जिसकी आशा वह किये हुये
३२. (१) दूषक : भ्रष्टाचारी, निदंक, दूषित थी। वह बुरे कामों में लग गया और अपने मन्त्रियों करनेवाला, कुपथगामी करनेवाला, पापी ।