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जैनराजतरंगिणी
[२:१२४-१२७ अजरामरबुद्धादीन् ब्राह्मणान् सेवकानपि ।
तत्कोपेनाकरोद् राजा निकृत्तभुजनासिकान् ।। १२४ ॥ १२४. इस क्रोध से राजा ने अजर अमर, बुद्ध आदि सेवक ब्राह्मणो का भी हाथ-नाक कटवा दिया।
त्यक्तस्वजातिवेशास्तदिनेषु ब्राह्मणादयः ।
न भट्टोऽहं न भट्टोऽहमित्यूचुर्भट्टलुण्ठने ।। १२५ ॥ १२५. उन दिनों में भट्टों के लूटे जाने पर अपना जातीय वेश त्याग कर, ब्राह्मण आदि 'मै भट्ट नहीं हूँ, मैं भट्ट नहीं हूँ'-इस प्रकार कहने लगे । मूर्ति लोठन :
बहुखातकमुख्या ये पुरे सन्तीष्टदेवताः ।
तन्मूर्तिलोठनं राजा म्लेच्छप्रेरणयादिशत् ।। १२६ ॥ १२६. म्लेच्छों की प्रेरणा से राजा ने पुर के जो बहुखातक' प्रमुख इष्टदेव थे, उनकी मूर्ति तोड़ने का आदेश दिया।
दत्ता भूर्जेनभूपेन येषां गुणपरीक्षया ।
तेभ्यस्तां निर्निमित्तेनाप्यहरन्नाधिकारिणः ॥ १२७ ॥ १२७. गुण परीक्षा के कारण, जिन लोगों को जैन राजा ने भूमि दी थी, उनसे उसे अधिकारियों ने अकारण ही अपहृत कर लिया।
पेशनजर मन्दिरों से बनाया था आग लगा दी। पाद-टिप्पणी : इससे सुलतान का गुस्सा और भी भड़क गया और १२५. (१) भट्ट नहीं हूँ 'न भट्टोहम् नबाज़ सरकरदा हिन्दुओं को मौत के घाट उतार भटोहम।। दिया और बाज को दरया मे डुबो दिया और ,
पाद-टिप्पणी : बाज़ के हाँथ-पाँव कटवा दिये (पीर हसन : १८८)।
१२६. (१) बहखातक : श्रीनगर में सातवें पाद-टिप्पणी:
पुल के अधोभाग मे बहुखातकेश्वर भैरव का मन्दिर १२४. (१) अजर, अमर, बुद्ध : ब्राह्मण
था। खातकेश्वर को काश्मीरी उच्चारण के अनुसार
अन्त मे 'क' लगाकर खातक बना दिया गया है । सेवक राजा के थे। बुद्ध नाम महत्वपूर्ण है । बुद्ध
श्रीवर का तात्पर्य इसी मन्दिर से है। भैरव के धर्मावलम्बी कुछ शेष रह गये थे अथवा बुद्ध पूजा
मन्दिर आज भी है। इसी के समीप रूपा देवी का शिव एवं विष्णु पूजा के साथ इस समय तक प्रचलित मन्दिर भी है। यहाँ मेला लगता था। काश्मीरी रही थी।
ब्राह्मण बहाँ जाया करते है।