Book Title: Jain Raj Tarangini Part 1
Author(s): Shreevar, Raghunathsinh
Publisher: Chaukhamba Amarbharti Prakashan

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Page 401
________________ २८६ जैनराजतरंगिणी [२:११७-१२० स दूरविस्तृतः पुच्छः कालकुन्तोपमो दिने । ___ स्फुरन् प्रतीची प्रत्याशां तस्यैव ददृशे जनः ।। ११७ ॥ ११७. उसका दूर तक विस्तृत काल कुन्त' सदश उस पूंछ को, दिन में भी पश्चिम दिशा की ओर स्फुरित होते हुये, लोगों ने देखा। युग्मसूर्वडवा राजमन्दुरान्तर्गताभवत् । देशात् क्रष्टुं ददौ राजा यां भिया यवनक्षये ।। ११८ ॥ ११८. राजा के अस्तबल में युगल बच्चा पैदा करनेवाली एक घोड़ी थी। यवनों का क्षय होने पर, राजा ने देश से निकालने के लिये दे दिया। सिंहादयो दिने चेरुर्वन्याः श्रीनगरान्तरे । बिडालपोतं सुषुवे शुनी च प्रसवक्षणे ॥ ११९ ॥ ११९. दिन में श्रीनगर के अन्दर सिंहादि वन्य पशु विचरण करने लगे और प्रसव के समय एक कूतिया ने बिड़ाल का बच्चा पैदा किया। निष्फलो यः सदानन्दीतरुः स सफलोऽभवत् । उपराजगृहं मूलाद् दाडिमीकुसुमोद्गमः ॥ १२० ।। १२०. फल न देनेवाला सदानन्दी' वृक्ष फल युक्त हो गया। राजगृह के समीप जड़ से अनार वृक्ष में कुसुमोद्गम हुआ। पाद-टिप्पणी: पाद-टिप्पणी : ११७. (१) कुन्त : श्रीदत्त ने कुन्त का अर्थ ११९. (१) सिंहादि : निर्भय हिंस पशु 'लान्स' अर्थात भाला बर्छा किया है। कून्त बर्छा सिंहादि वन्य पशु स्वतन्त्रतापूर्वक नगर मे विचरण है। गीतगोविन्द में कुन्त की उपमा दी गयी है- करते थे यह नागरिकों तथा राज्य की अतीव दुर्बलता 'विरहि निकृन्तन कुन्त मुखाकृति केतदि दन्तु- का द्योतक है क्योंकि उन्हे भय से मारता नही था। रिताशे' । कल्हण ने कुन्त शब्द भाला या बर्थो के (२) कूतिया : भीष्मपर्व महाभारत में इसी अर्थ में प्रयोग किया है ( रा०:४:३०१)। प्रकार का उल्लेख मिलता है तुलसीदास ने कुन्त का इसी अर्थ में प्रयोग गोवत्सं बडवासूते श्वा शृंगाल पहीयते । किया है : कुक्कुरान करभाश्चैव शुकाशचा शुभवादिनः ॥ ३ : ६ कुवलय विपिन कुन्त बन सरिसा । घोड़ी गाय के बच्चे को जन्म देती है, कुतिया वारिद तपत तेल जनु वरिसा ॥ शृगाल उत्पन्न करती है, हथिनी कुत्तों को जन्म ___अनेकार्थ पृष्ठ १२३ में उल्लेख है : देती है, और शुक भी अशुभसूचक बोली बोलते है । कुंत सलिल औ कुंत कुस, कुंत अनल नभ काल। पाद-टिप्पणी: कुंत कहत कवि कमल सो, कुंत जु खंग कराल ॥ १२०. (१) सदानन्दी : वृक्ष फल नहीं देता।

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