Book Title: Jain Raj Tarangini Part 1
Author(s): Shreevar, Raghunathsinh
Publisher: Chaukhamba Amarbharti Prakashan

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Page 413
________________ २:१६७-१७०] श्रीवरकृता २९९ नूनं स्वानुजभीतोऽभूत्तत्कालं सोऽन्यथा कथम् । परिधानादिसत्कारं न्यूनमेवाकरोत् सुते ।। १६७ ।। १६७ निश्चय ही वह अपने भाई से डर गया था, अन्यथा परिधान आदि द्वारा पुत्र का थोड़ा ही सत्कार क्यों करता? बहामो बाधते नूनं मत्पुत्रमिति शङ्कितः । स तस्मिंश्छन्नकोपाग्निः शमीतरुरिवाभवत् ॥ १६८ ।। १६८. निश्चय ही बह्राम मेरे पुत्र को बाधित करता है, इस प्रकार शंकित होकर, वह राजा उसके प्रति कोपाग्नि प्रच्छन्नकर, शमी' वृक्ष सदृश हो गया। पानार्थं राजधान्यग्रं तस्मिन्नवसरे नृपः । आरुरोह समं भृत्यमृत्युनेव प्रचोदितः ।। १६९ ॥ __ १६९. उसी अवसर पर मानो मृत्यु से प्रेरित होकर, राजा भृत्यों के साथ मद्यपान करने के लिये, राजप्रासाद पर चढ़ा। तत्र पुष्करसौधान्तलीलया काचमण्डपे । धावन् पपात नासाग्रस्रवदस्रविसंस्थुलः ।। १७० ।। १७०. वहाँ पुष्कर सौध के अन्दर काँच' मण्डप में लीलापूर्वक दौड़ते हुये, गिर पड़ा और नाक से बहते रुधिर से, वह बिक्षुब्ध हो गया। पाद-टिप्पणी शमी की पूजा की जाती है। विजयदशमी के दिन 'न्यून' पाठ-बम्बई। शमी की पूजा, परिक्रमा आदि कर उसकी पत्ती १६७. (१) सत्कार : सुल्तान विजयी पुत्र पगड़ी या शिर पर रखते है। से रुष्ट हो गया था। उसने मुलाकात करने से पाद-टिप्पणी : इनकार कर दिया। परन्तु सेनानायकों के कहने से 'दस' 'स्थलु' पाठ-बम्बई । पुत्र को दर्शन मात्र की आज्ञा दी थी। हसन ने १७०. (१) कॉच मण्डप : शीशमहल । सीमावर्ती राजाओं का जो दमन किया था, उसकी राजप्रासाद का वह भाग या कमरा जहाँ चारों ओर प्रशंसा न कर सुल्तान ने पुत्र को साधारण खिलअत शीशा है अथवा दिवालों, खिड़कियों पर शीशे दी ( म्युनिख पाण्डु० ७८ बी०: तवक्काते अकबरी लगे रहते है । यदि शीशमहल का संस्कृत रूप कांच ४४७ = ६७५ )। मण्डप श्रीवर ने किया है तो शीशमहल राजप्रासाद पाद-टिप्पणी: के अन्तःपुर का एक कक्ष होगा। १६८. ( १ ) शमी : एक वृक्ष है। इसकी तवक्काते अकबरी में उल्लेख है-'एक दिन लकड़ी को परस्पर रगडने से अग्नि उत्पन्न हो सुल्तान एकान्त में मदिरापान में व्यस्त था। उसी जाती है। मस्ती की अवस्था में उसका पाँव कॉपा और वह 'अग्निगर्भा शमीमिव' (शकुन्तला : ४ : २)। गिर पड़ा और उसकी मृत्यु हो गयी ( ४४७ = द्रष्टव्य : मनु० : ८ : २४७; याज्ञ०१ : ३०२। ६७५ )।'

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