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१७.२७९१
श्रीवरकृता
केचिदप्यवशिष्टा ये सेवकास्तस्य तेऽप्यनन्तरविज्ञानात् तृणतुल्योपमां
भूपतेः । गताः ॥ २७९ ॥
।।
पाद-टिप्पणी:
२७९. बम्बई संस्करण का उक्त श्लोक क्रमसंख्या २७९, श्रीकण्ठ कौल के २७७ तथा कलकत्ता की ८०५वीं पंक्ति है। बम्बई संस्करण मे ८०५ श्लोक है। कलकत्ता संस्करण में ८०६ पंक्तियाँ इतिपाठों सहित है। श्रीकण्ठ कौल संस्करण प्रथम तरंग में ८०२ श्लोक है । कलकत्ता संस्करण के श्लोकों की संख्या नहीं दी गयी है। पंक्तियों की संख्या है। कुछ विद्वानों ने पंक्तियों को श्लोक मानकर गलतियाँ की है । बम्बई संस्करण मे प्रत्येक श्लोकों की क्रमसंख्या अलग-अलग है ।
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२७९. उस राजा के जो कुछ सेवक अवशिष्ट रहे, वे भी बिना अन्तर के देखे जाने के कारण, तिल एवं तूल (रुई) सदृश हो गये ।
इति पण्डितश्रीवरविरचितायां जैनराजतरङ्गिण्या जैनशाहिवर्णनं नाम प्रथमस्तरङ्गः ॥ १ ॥ इस प्रकार पण्डित श्रीवर विरचित जेनराजतरंगिणी जैनशाहि वर्णन नामक प्रथम तरंग समाप्त हुआ ।
के अन्तिम श्लोको की गणना एक साथ की गयी है। बम्बई तथा श्रीकण्ठ कौल सस्करण मे प्रत्येक सर्ग की संख्या अलग-अलग दी गयी है । पाद-टिप्पणी:
उक्त सर्ग में कलकत्ता एवं बम्बई संस्करण के अनुसार २७९ श्लोक एवं श्रीकण्ठ कौल के अनुसार २७७ श्लोक है । श्लोकों में वास्तव में अन्तर नही है। श्रीकण्ठ कौल ने चार श्लोकों को तीन पक्तियों मे लिया है। कलकत्ता तथा बम्बई मे वे दस पक्तियों मे लिखे गये है । इस प्रकार श्रीकौल की चार पंक्तियों के २ और श्लोक हो जाते है। अतः दो कलकत्ता मे प्रथम तरंग के प्रथम से सप्तम सर्ग बढ़ जाने के कारण प्रस्तुत संख्या २७९ हो गयी है ।
रघुनाथ सिंह पुत्र स्वर्गीय श्री बटुकनाथ सिंह, जन्मस्थान पंचक्रोशी अन्तर्गत वरुणा तीर स्थिति ग्राम खेवली, रामेश्वर स्थान समीप तथा निवासी मुहल्ला घीहट्टा (औरंगाबाद ) वाराणसी नगर ( उत्तर प्रदेश ) भारतवर्ष ने श्रीवर कृत जैनराजतरंगिणी प्रथम तरंग का भाष्य एवं अनुवाद लिखकर समाप्त किया। सन् १९७६ ६० संवत् २०३३विक्रमी शक० १८९८, कलि गताब्द ५०७७, फसली १३८३ - १३८४, हिजरी० १३९६ - १३९७, बंगला संवत्
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१३८२-१३८३ = लौकिक या सप्तर्षि संवत् ५०५२ ।