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जैनराजतरंगिणी
[१:७ : २७५-२७८ दृष्टो रम्यश्चिरमुपवने वंशवाटो जनों
नानावणैर्नवतृणगणभूषितो भूरिपत्रः । तत्रान्योन्याहननजननात् तादृगम्युत्थितोऽग्नि
र्येनैकान्तादुपवनगतं सर्वमेव प्रनष्टम् ॥ २७५ ॥ २७५. लोगों ने उपवन में चिरकाल तक नाना वर्ण के नवीन तृण गणों से भूषित, प्रचुर पत्र युक्त जिस वंश-पुंज को देखा था, वहाँ परस्पर संघर्ष से ऐसी अग्नि उठी, जिससे एक ओर से उपवनगत, वह सब नष्ट हो गया।
या कारकसभा भव्याऽभवच्छ्रीजैनभूपतेः।
वर्षेणैकेन तच्छापात् सर्वा स्वप्नोपमाभवत् ।। २७६ ।। २७६. श्री जैन भूपति की जो भव्य कारक सभा' थी, वह सब एक ही वर्ष में उसके शाप से स्वप्नवत् हो गयी।
क्षुब्धे राज्यमहाम्भोधौ भूपप्रमयवायुना ।
तत्तत्सेवकरत्नौघः शतैकीयोऽवशिष्यत ।। २७७ ।। २७७. राजा की मृत्यु-रूपी वायु से, उस राज्य-रूप महासागर के, क्षुब्ध हो जाने पर, तत्तत् सेवक-रत्नों का समूह, सैकड़ों में एक शेष रहा।
प्रभवत उत यावत् स्वप्रभुः सौख्यदाता
विदधति खलु तावत् सेवकास्तस्य मानम् । इह वसति वसन्तो यावदेव स्वनन्तो
मधुकरपिकमेकास्तावदेवाद्रियन्ते ॥२७८ ॥ २७८. जब तक सौख्यदाता अपना स्वामी समर्थ रहता है, तब तक वे सेवक, उसका मान करते है, क्योंकि जब तक, वसन्त रहता है, तब तक ही गब्दायमान मधुकर, पिक एवं भेक' ( मेढक ) समादृत होते हैं।
पाद-टिप्पणी :
२७५. 'न्याहनन जननात्' पाठ-बम्बई । पाद-टिप्पणी :
२७६. (१) सभा : दरबार । द्र०:१:७: १०५; १:७ : २७४; ३ : १६ ।
पाट-टिप्पणी :
२७७. 'शिष्यत' पाठ-बम्बई। पाद-टिप्पणी :
२७८. (१) भेक : मेढकों की ध्वनि । 'पङ्क निमग्ने किरणि भेको भवति मूर्घकः ।'