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जैनराजतरंगिणी
[१:७:५७-६२
शौयौंदार्यनिधेः सूनोरतिप्रियतया तया।
राज्यसौख्यलता राजहृदुद्याने फलाचिता ।। ५७ ॥ ५७. सौर्य एव औदार्य के निधि पुत्र की उस अति प्रियता के कारण राजा के हृदय रूपी उद्यान में फलपूर्ण राज्य सौख्य लता उस समय हो गयी।
तदाभून्नीरसप्राया तदस्वास्थ्यदवाग्निना।
अथानीयान्तिकं दृष्ट्वा सविकारं भृशं कृशम् ॥ ५८ ॥ ५८. उसके आस्वास्थ रूप दवाग्नि से (उस समय) नीरसप्राय हो गयी थी। समीप लाकर रोगग्रस्त एवं अति कृग पुत्र को देखकर
स्नेहादित्यव्रवीद् राजा पुत्रं मन्त्रिसभान्तरे ।
अहो पुत्र फलं लब्धं दोषासक्तेन पानजम् ॥ ५९॥ ५९. मन्त्रि सभा के मध्य राजा ने प्रेमपूर्वक उससे इस प्रकार कह--'हे पुत्र ! दोष में आसक्ति के कारण तुमने पान से उत्पन्न फल प्राप्त किया है--
येनेदशी दशा प्राप्ता चन्द्रेणेव क्षयावहा ।
स्वार्थापेक्षी हितः कोऽपि भृत्यस्ते नास्ति रक्षकः ॥ ६० ॥ ६०. 'जिससे तुम्हारी चन्द्रमा के समान इस समय क्षयावह दशा हो गयी है। तुम्हारे स्वार्थीपेक्षी कोई हितैषी भी भृत्य तुम्हारा रक्षक नहीं है।
पानव्यसनसंसक्तं यस्त्वामुपदिशत्यलम् ।
कियन्तो वत न भोगाश्चमत्कारकरास्तव ॥ ६१ ॥ ६१. 'जो पान व्यसन में रत तुम्हें उपदेश देता । दुःख है, कौन-से चमत्कारी भोग तुम्हें प्राप्त नहीं हैं।
किमेकेन भवान् ग्रस्तो विषयेण पतङ्गवत् ।
अस्मिज जन्मनि सामग्री येयं प्राप्तान्यदुर्लभा ।। ६२ ॥ ६२. 'आप फतिंगे के समान एक हो विषय में क्यों ग्रस्त हो गये ? इस जन्म में अन्य दुर्लभ जो यह सामग्री प्राप्त हुई है।
पाद-टिप्पणी :
का तथा बम्बई संस्करण के श्लोक ५८ का प्रथम पद ५७ उक्त श्लोक का प्रथम दो पद मिलकर है । अनुवाद सौकर्य एवं प्रसंग की दृष्टि से श्लोक एक श्लोक कलकत्ता संस्करण की ५८३ वी पंक्ति के पूर्वार्ध-परार्ध को परिवर्तित किया गया है, जिसके तथा बम्बई संस्करण का ५७ वाँ श्लोक बनता है। कार कलकत्ता एवं बम्बई दोनों से कुछ अन्तर इसका तृतीय पद कलकत्ता संस्करण के पंक्ति ४८४ ज्ञात होगा।