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१:७:१०२-१०५]
श्रीवरकृता व्याकुलत्वं विशां येन तव न स्याच्च भूपते ।
तत्रापि माणिक्यदेवः श्रुत्वासुं प्रबलं श्रिया ॥ १०२ ॥ १०२. 'जिससे कि 'हे ! राजन् !! तुम्हारी एवं प्रजाओं की व्याकुलता न हो, उनमें भी उसे श्री में प्रबल सुनकर, माणिक्यदेव
वैरी स्याद्यन देशस्य सर्वनाशोऽचिराद् भवेत् । .
इति श्रुत्वाब्रवीत पुत्रस्वभावेक्षणदक्षधीः ॥ १०३ ॥ १०३. 'बैरी होगा जिससे शीघ्र देश का सर्वनाश हो जायेगा' यह सुनकर पुत्रों का स्वभाव जानने में चतुर बुद्धि (राजा ने) कहा--
ज्येष्ठः श्रेष्ठोऽस्ति किंत्वस्य कार्पण्यं येन सेवकाः ।
न सन्ति तादृशा येषां राज्यं दाव्य मवाप्नुयात् ॥ १०४ ॥ १०४. 'ज्येष्ठ (पुत्र) श्रेष्ठ है, किन्तु उसमें कार्पण्य है अतएव उसके कारण इस प्रकार के सेवक नहीं रहेंगे कि राज्य दृढ़ हो सके ।
मध्यमोऽतीव दातास्य प्रधु न्नाचलसंनिभम् ।
धुम्नं चेत् स्याद् व्ययान्नास्य कमात्रोऽवशिष्यते ॥ १०५ ॥ १०५. 'मध्यम अतीव दाता है, इसके पास प्रद्युम्नाचल' सदृश धन हो, तो इसके व्यय से कर्ष मात्र अवशिष्ट नही रहेगा।
अमीरों और वजीरों ने संगठित होकर, निवेदन किया पाद-टिप्पणी . कि यदि राज्य को किसी एक शाहजादे को सौप १०४. पद के द्वितीय चरण का पाठ संदिग्ध है। दिया जाय, तो इससे राज्य एवं शासन प्रबन्ध में शान्ति रहेगी (पृ० : ४४४-६७० ।'
पाद-टिप्पणो . फिरिश्ता लिखता है--अमीर लोग सुल्तान पर
__१०५. (१) प्रद्युम्नाचल . हरि पर्वत = जोर डालने लगे कि वह किसी पुत्र को अपना उत्तरा
शारिका पर्वत = प्रद्युम्न गिर = प्रद्युम्न शिखर प्रद्युधिकारी घोषित कर दे ( ४७४)।
म्नाद्रि। कैम्ब्रिज हिस्ट्री में 'एवडीकेट' शब्द का प्रयोग
२) कर्ष : यह प्राचीन सिक्का अथवा मुद्रा किया गया है। जिसका अर्थ होता है राज्य त्याग ।
था। इसका तौल लगभग १६ मासा होता देना, सिंहासन से उतर जाना। उल्लेख किया गया
था । प्राचीन काल में मासा ५ रत्ती का होता था। है-राजा के मन्त्रियों ने उससे प्रार्थना किया कि इस हिसाब से आजकल तोल दस ही मासा ठहरेगा।
वैद्यक मे कही-कहीं २ तोला माना गया है। वह अपने किसी एक पुत्र के पक्ष मे राज्य त्याग दे ( ३ : २८४ )।
इसे 'हण' भी कहते थे। यह रजत मुद्रा १६ जै. रा. २७