________________
२२६
जैनराजतरंगिणी
[१:७:१८६-१९० अत्युन्नतान् सुफलदान् विततोच्चशाखान्
ख्यातान् द्विजप्रियतया शुभमार्गसंस्थान् । घाता निपातयति सर्वजनोपयोग्यान्
पृथ्वीधरांस्तरुवरानिव दुष्टवातः ॥ १८६ ॥ १८६. तरुवरों के सदृश, अत्युन्नत, फलप्रद, वितता ( विस्तृत ) एवं उन्नत शाखाओं से युक्त, द्विजप्रियता के कारण ख्यात, शुभ मार्ग पर स्थित, सर्वजनोपयोगी, पृथ्वीधरों को, दुष्ट वायु समान, विधाता नष्ट कर देता है।
अत्रान्तरे त्रयः पुत्रा दोषा इव महोल्वणाः ।
धातुवद् दूषयामासुर्देशे प्रकृतिसप्तकम् ।। १८७ ।। १८७. इसी समय दोष के समान अत्युग्र, तीनों पुत्रों ने धातु सदृश, सप्त प्रकृति युक्त देश में दोष उत्पन्न कर दिया ।
मूकप्रायं नृपं तादृगवस्थं द्रष्टुमन्वहम् ।
सशङ्कास्तमुपाजग्मू राजपुत्रा भटोल्वणाः ॥ १८८॥ १८८. उस अवस्था में, मूकप्राय राजा को देखने के लिये, सशंकित एवं भटोल्वण ( उग्रभट युक्त ( राजपुत्र' ( राजपूत ) प्रतिदिन आते थे।
राजान्तरङ्गास्तत्पुत्रभीत्यै तादृग्दशं नृपम् ।
द्वाराग्रे स्थापयामासुः सर्वदर्शनदित्सया ।। १८९॥ १८९. राजा के अन्तरंग लोगों ने सबको दर्शन देने की इच्छा से तथा उसके पूत्रों के भय हेतू, उस दशा में स्थित, राजा को द्वार पर रख दिया।
स्वस्तिवादध्वनि श्रुत्वा सबाह्याभ्यन्तरा जनाः ।
द्वितीयेन्दुमिवाद्राक्षुः सानन्दा दर्शनागताः ।। १९० ॥ १९०. स्वस्ति वादनध्वनि सुनकर, दर्शन' हेतु आगत, बाह्य एवं आभ्यान्तर के सब लोग, आनन्दपूर्वक द्वितीया के चन्द्रमा सदश ( राजा को ) देखे। पाद-टिप्पणी :
पाद-टिप्पणी : १८७. (१) धातू : द्रष्टव्य पाद-पिप्पणी
१८८. ( १ ) राजपुत्र : श्रीदत्त ने 'राजपुत्र' जैन० . १ : ७ : ६६, ११०; : ३६२ ।
का अनुवाद 'राजपूत' किया है। यह गलत है। (२) सप्तप्रकृति : देश किंवा राज्य के
काश्मीर उपत्यका में राजपूत जाति नही थी। सात अंग माने गये है-१. स्वामी, २. अमात्य, यदि कोई था भी तो वह अपवाद मात्र था। ३. जनपद या राष्ट्र, ४. दुर्ग (राजधानी), ५. कोश, ६. दण्ड (सेना) तथा ७. मित्र ( मनु० : ७ : १५६: पाद-टिप्पणी : अर्थशास्त्र० : ६ : २; शुक्र० : १ : ६१-६२; २: १९०. (१) दर्शन : साक्षात्कार, मुलाकात या ७०-७३ )।
देखने से तात्पर्य है।