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१:७ : १७९-१८५]
श्रीवरकृता इत्यादिचिन्तासंतापजाताधिव्याधिबाधितः ।
विमुक्तराज्यनिर्बन्धः स निःस्पन्द इवाभवत् ॥ १७९॥ १७९. इस प्रकार चिन्ता सन्ताप से उत्पन्न आधि-व्याधि पीड़ित, वह ( राजा ) राज्याग्रह त्याग कर, निःस्पन्द सदृश हो गया।
सबालवृद्धं नगरं क्षुभ्यत् तत्तत्कुवार्तया ।
सोऽभूदब्धिमिवोवृत्तं समास्थापयितुं क्षमः ॥ १८० ।। १८०. उमड़े सागर के समान तत्-तत् कुवार्ता से बाल-बृद्ध सहित क्षुभित होते नगर को वह ( राजा ) सम्यक् रूप से व्यवस्थित करने में समर्थ नहीं हुआ।
भोक्तव्यं यन्मया भुक्तं किं भोक्ष्येऽद्य नय द्रुतम् ।
आनीतभोज्यमन्येधु : शिवभट्ट क्रुधाब्रवीत् ।। १८१ ॥ १८१. 'मुझे जो भोजन कग्ना था, वह कर लिया, शीघ्र ले जाओ'-इस प्रकार दूसरे दिन भोजन लेकर आये हुये, शिवभट्ट से क्रोधपूर्वक ( राजा ने ) कहा ।
अतिचिन्ताकुलो राजा छायायामप्यविश्वसन् ।
दुध्र क्षन् सचिवाञ् श्रुत्वा श्रद्दधे न स्वजीवितम् ।। १८२ ।। १८२. अति चिन्ताकुल राजा छाया में भी विश्वास न करते हुये तथा मन्त्रियों को भी द्रोह के लिये इच्छुक सुनकर, अपने जीवन पर भी श्रद्धा नही किया।
गतसंविदिव स्थित्वा दिनानि कतिचिन्निजैः ।
स पृष्टोऽप्युत्तरं राजा न कस्मा अप्युदैरयत् ।। १८३ ॥ १८३. कुछ दिनों राजा चेतनरहित तुल्य स्थित रहा और आत्मीय जनों के पूछने पर भी किसी को उत्तर नही देता था।
पृष्टः प्रकृतिभिः कार्य संभाष्यानर्थकं वचः ।
रुजाते इव शय्यायां स सुष्वापैकदालसः ।। १८४ ॥ १८४. एक समय मन्त्रियों द्वारा कार्य पूछने पर, निरर्थक बात कह कर, वह राजा रोग पीड़ित सदृश, शय्या पर सो गया।
नाविदंस्तद्रजो हेतुं लक्षणं वा चिकित्सकाः ।
जानेऽवाच्यां शुचं हां बभूवानशनव्रती ॥ १८५ ॥ १८५. चिकित्सक उसके रोग का हेतु तथा लक्षण नहीं जान सके, मानों अकथनीय शोक को दर करने के लिये, वह अनशनवती हो गया। पाद-टप्पणी :
११९; ४ : १९४, ३४२ । श्रीदत्त ने भी समर्थ 'उद्वत्तम्' पाठ-बम्बई। १८०. (१) नगर : श्रीनगर, द्र० : २ : नहीं हुआ, अनुवाद किया है ।
जै. रा. २९