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जैनराजतरंगिणा
[१ : ७ : ११४-११८ देशस्य यावत्युत्पत्तिर्नवा तत्रिगुणा मया ।
संपादिता प्रजास्नेहात् कुल्याकर्षणयुक्तिभिः ।। ११४ ।। ११४. 'प्रजा स्नेहवश नहर लाने की उक्तियों से, देश की जितनी उत्पत्ति थी, उसका तिगुना मैने नया संपन्न कर दिया।
सर्वदर्शनरक्षायै पात्राण्यालोच्य सर्वतः ।
प्रतिपद्य शुभे काले भूनवा धर्मसात्कृता ॥ ११५ ॥ ११५. 'सब दर्शनों की रक्षा के लिये, चारों ओर से उचित पात्रों (विद्वानों) का विचार कर, उन्हें आमन्त्रित करके, शुभमुहूर्त में नवीन भूमि को धर्मार्थ प्रदान किया।
सच्छिद्रमधुना राज्यं वदने रदनोपमम् ।
तुदति प्रत्यहं तस्मात् तत्त्यागेन सुखं मम ।। ११६ ॥ ११६ 'इस समय मुख में दाँत सदृश, राज्य छिद्रपूर्ण हो गया है। प्रतिदिन पीड़ा देता है, इसलिये उसके त्याग से सुख होगा।
चौराणामिव दीपोऽहं येषामक्षिगतोऽस्म्यहम् ।
अचिरान्मद्गुढस्थित्या ते स्युरनुशयादिताः ॥ ११७ ।। ११७. 'चोर के नेत्र में दीपक तुल्य, जिनके नेत्रों में मैं पड़ गया हूँ, वे शीघ्र ही मेरे गुणों की स्थिति हेतु पश्चाताप से पीड़ित होंगे।
स्थास्यन्ति न चिरं तेऽपि मद्विष्टा ये सुतादयः ।
सकलाः प्रलयं यान्ति भुक्त्वा धान्यफलं न किन् ।। ११८ ॥ ११८. 'मेरे द्वेषो जो सुतादि है, वे भी चिरकाल तक स्थित नही रहेंगे, धान्य फल (सपत्ति) का भोगकर, क्या सब लोग नष्ट नही हो जाते?
केवल संस्कृत लिखित ग्रन्थ नही किन्तु अरबी एवं फारसी पाद-टिप्पणी : में लिखित ग्रन्थ से भी लगाना चाहिए। सुल्तान ११५. (१) दर्शन : दर्शन का अर्थ यहाँ पर फारसी का लेखक था । संस्कृत जानता था । परन्तु मत-मतान्तर, धर्म एवं सम्प्रदाय लगाना चाहिए उसके संस्कृत की किसी रचना का पता नही चलता। द्र० : २ : ९६, १२८ । शास्त्र का अभिप्राय यदि धर्म ग्रन्थ से लगाया जाय, पाद-टिप्पणी : तो सुल्तान सच्चा मुसलमान था। अपने धर्म पर।
११७. पाठ-बम्बई । दृढ़ रहते, दूसरे धर्म का आदर करता था। हिन्दूमसलमान सभी के धर्म ग्रन्थ किंवा शास्त्र का पाद टप्पणी अध्ययन करता था।
११८. पाठ-बम्बई।