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१:७:११९-१२३] श्रीवरकृता
२१३ युक्त्या निर्याणमेवास्य जीवस्येच्छामि साम्प्रतम् ।
येन सर्वे भविष्यन्ति पुत्राः पूर्णमनोरथाः ।। ११९ ॥ ११९. 'इस समय युक्ति से इस जीवन के निकल जाने की ही इच्छा करता हूँ, जिससे सब पुत्रों का मनोरथ पूर्ण हो जायगा।'
श्रुत्वेत्युक्ति सदुःखस्य नृपतेस्तेऽब्रुवन् पुनः ।
देवेदं चेन्मतं तत्कि कोशोऽयं रक्ष्यते महान् ॥ १२० ॥
२०. दुःखी राजा के इस कथन को सुनकर, वे पुनः बोले-'हे ! देव !! यदि यही निर्णय है, तो क्यों इस महान कोश को रक्षा कर रहे हो ?
परलोकस्य पाथेयं कुरु जीवन् स्वयं व्ययम् ।
तदाकाब्रवीद्राजा युक्तमुक्तमिदं वचः ॥ १२१ ॥ १२१. 'जीते जो स्वयं व्यय कर, परलोक का पाथेय बना लो।' यह सुनकर, राजा ने कहा—'यह बात आपलोगों ने ठीक कही है।'
किंतु शृण्वन्तु मे हेतुं यत् कोशोऽयं धृतो भृतः । मयि प्रमीते मद्राज्यं मत्पुत्रः कोऽपि चेल्लभेत् ।
मत्संचयेन तृप्तः स प्रजायाः स्वं त्यजिष्यति ॥ १२२ ॥ १२२. 'मेरा वह हेतु सुनिये, जिससे यह पूर्ण कोश धारण किये हूँ। मेरे मरने पर मेरा राज्य यदि कोई मेरा पुत्र प्राप्त करेगा, तो मेरे संचय से तृप्त होकर, प्रजा का धन त्याग देगा?
पुत्राधिका प्रजेयं मे रक्षणीया विभाति या ।
तस्याः पीडां भविष्यन्ती हरिष्ये संचयादतः ।। १२३ ॥ १२३. 'मुझे यह प्रजा पुत्र से अधिक रक्षणीय प्रतीत होती है, अतः इस संचय से उसकी भावी पीड़ा का हरण करूंगा।
पाद-टिप्पणी:
पाद-टिप्पणी : पाठ-बम्बई।
१२२. पाठ-बम्बई।
पाद-टिप्पणी: १२१. (१) स्वयं : राजा ललितादित्य ने
१२३. (१) पाठ : श्लोक संख्या १२२ का अपने वंशजों तथा देशवासियों के लिए वसीयत लिखा
तृतीय तथा १२३ का दोनों पद मिलकर कलकत्ता था। श्रीवर ने उसी शैली का यहाँ अनुकरण किया ।
की पंक्ति ६४८ का पूर्ण दो पद और पंक्ति ६४९ है ( रा०:४ : ३४१-३६३ ) ।
का एक पद से तीन पदीय श्लोक बनता है।