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जैन राजतरंगिणी
यन्नोक्तं यच्च नो दृष्टं यच्छ्रतं वा कदाचन । निर्यन्त्रणो जनः प्रोचे प्रत्यहं राजमन्दिरे ।। १५५ ।।
१५५. 'जैसा कभी कहा नहीं गया, देखा अथवा सुना नहीं गया, - इस प्रकार अनियन्त्रित जन राजमन्दिर में कहते थे ।
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स्वभ्रातृकल हैकाग्रस्तत्तत्यैशुन्यकर्मणा बहामखानोऽनर्थानां
कर्णो मूलमिवाभवत् ।। १५६ ।।
१५६. तत् तत् पैशून पूर्ण कार्य से, अपने भाइयों के कलह से, एकाग्र बहराम खान कर्ण' के समान, अनर्थों का मूल था ।
स्निग्धोऽयमित्यवगते यदि काष्ठखण्डे दत्तप्रदीपपदवीपरिदीपिताशे
किं स ज्वलन्नपि करोति चिरं प्रकाशं
[१ : ६ : १५५-१५८
दोपं न कं वितनुते निजकज्जलौघैः ।। १५७ ।।
१५७. स्निग्ध है, यह ज्ञात होने पर, काष्ठ खण्ड को दीपक की पदवी देकर, दिशाओं के प्रकाशित किये जाने पर, क्या वह जलने पर ही अधिक प्रकाश करता है ? और अपने कज्जल पुंजों से कौन-सा दोष नही फैलाता ?
प्राप्तस्त्राणाय राज्ञेोऽसावित्याशा यन्निवेशिता । वित्राणोऽप्यात्मरक्षणे || १५८ ।।
अभूदादमखानः
स
१५८. 'राजा की रक्षा के लिये वह आया है' - इस प्रकार की जो आशा हुई, वह रक्षारहित, आदम खान आत्मरक्षा में भी समर्थ नहीं हुआ J
पाद-टिप्पणी :
१५६. ( १ ) कर्ण : महारथी कर्ण की तुलना श्रीवर बहराम खाँ से करता है । कर्ण यद्यपि दानी था परन्तु महाभारत में उसका जो चरित्र चित्रण किया गया है, उससे प्रकट होता है कि दुर्योधन को एकमात्र कर्ण की वीरता तथा निष्ठा पर ही गर्व था । कण की वीरता को अपनी शक्ति मानकर दुर्योधन ने सबकी उपेक्षा की थी । कर्ण यदि न होता, तो उनके अनर्थों का सृजनकारक दुर्योधन
शायद अपने कार्यो से विरत ही रहता । महाभारत युद्ध मे भी भीष्म, द्रोणाचार्य आदि कौरवों की ओर से लड़ते हुए भी सहानुभूति पाण्डवों से रखते थे । परन्तु कर्ण ठोस पत्थर की दीवाल की तरह अडिग दुर्योधन के साथ अन्त तक खड़ा रहा। द्र० : १:१: १६६, १७ : १४० ।
पाद-टिप्पणी :
१५७. 'दत्त': पाठ - बम्बई ।