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जैनराजतरंगिणी
[१:७:१०६-१०९
कनिष्ठो दुष्टधीः पापनिष्ठोऽस्मादचिरात् ।
नष्टा स्यात् तत् सुतं श्रेष्ठं जाने कमपि नोचितम् ॥ १०६ ॥ १०६. 'दुष्ट-बुद्धि कनिष्ठ पापनिष्ठ है, इससे शीघ्र ही सभा (दरबार) नष्ट हो जायगी अतएव किसी पुत्र को श्रेष्ठ एवं उपयुक्त नहीं मानता।
मया तावत् स्वयं राज्यं कस्मा अपि न दीयते ।
गते मयि बलं यस्य स प्राप्नोत्विति मे मतम् ॥ १०७ ।। १०७. 'जीवन पर्यन्त मैं स्वयं राज्य' किसो को न दूंगा। मेरे मरने पर, जिसके पास बल हो वह प्राप्त करे, यही मेरा मत है ।
बहवो न मरिष्यन्ति यदि तन्मम को गुणान् ।
ज्ञासिष्यति यतः स्थित्या द्वयोर्भेदो हि लभ्यते ।। १०८ ॥ कुलकम् ।। १०८. 'यदि बहुत से मरेंगे नहीं, तो मेरे गुणों को कौन जानेगा, क्योंकि दोनों के ठीक प्रकार से स्थित रहने पर, (उनमें) भेद ही होता है ।
ध्वान्तं पतेयदि न दिक्षु जनस्य दृष्टि
नश्येन चेद्यदि मुषन्ति न तस्कराद्याः । सङ्कोचमेति गुणवान् यदि नाम नासो
जानाति यो दिनमणिं परलोकयातम् ॥ १०९॥ १०९. 'यदि दिशाओं में अन्धकार न छा जाय, लोगों की दृष्टि नष्ट न हो जाय, यदि चौरादि चोरी न करें, गुणवान (कमल ?) संकुचित न हो, तो ऐसा कौन होगा, जो सूर्य को परलोक गमन जानेगा?
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कार्षापण के बराबर होता था। यदि कार्षापण ताम्र पाद-टिप्पणी : का होता था, तो अस्सी रत्ती, सुवर्ण का १६ मासा १०७. (१) राज्य : तवक्काते अकबरी में यदि रजत या चाँदी का था तो १८ पण या १२८० उल्लेख है-'सुल्तान ने अपने पुत्रों में से किसी को कौड़ियों के मूल्य का होता था। एकमत से १ पण राज्य के लिए नहीं चुना ( ४४५-६७०)।' की कीमत प्राचीनकाल में ८० कौड़ी होती थी। फ़िरिश्ता लिखता है-'सुल्तान ने ( राज्य ( लीलावती ) रजत कर्षापण का १११६वाँ भाग उत्तराधिकार ) हेतु किसी को नामजद करना तथा मूल्य होता था। कृत्यकल्पतरु व्यवहार काल के अपने जीवित रहते किसी को राज्य देना अस्वीकार अनुसार सुषण का १/४८ भाग हाता था।
कर दिया ( ४७४)। स्थानभेद से कर्ष कहीं ८० रत्ती, कही १ कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इण्डिया में लिखा गया तोला और कही १०० या १२० रत्ती तौल माना है-राजा ने मन्त्रियों की सलाह ( राज त्याग) गया है।
नहीं माना ( ३ : २८४ )।