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जैनराजतरंगिणी
[१:७:९६-१०१ हा धिक्त्वां मां परित्यज्य पितान्योऽङ्गीकृतस्त्वया ।
दृष्टिा विहिता मूढ प्रोल्लङ्घय वचनं मम ॥ ९६ ॥ ९६. 'तुम्हें धिक्कार है, जो कि तुमने मुझे त्यागकर, दूसरे को पिता स्वीकार किया । हे ! मूढ़ !! मेरे वचन का उल्लंघन कर, जो दृष्टि की है
तस्या नाशोऽचिरेणैव भविष्यति न संशयः ।
इत्युक्त्वा प्रतिमुच्यामुं स्वान्तरेवमचिन्तयत् ॥ ९७ ॥ ९७. 'उसका शीघ्र ही नाश होगा। इसमे सन्देह नहीं है।' यह कहकर, उसे त्यागकर इस प्रकार अपने मन में राजा ने सोचा
अहो प्रदीप्तान्मत्तोऽमी जाता विसदृशाः सुताः। __ त्रयोऽमी दहनागारादिव हा भस्ममुष्टयः ॥ ९८ ॥
९८. 'अहो ! दुःख है !! तेजस्वी मुझसे ही ये तीन असमान पुत्र उसी प्रकार पैदा हुए है, जिस प्रकार दहनागार से (उत्पन्न) भश्म मुट्ठियाँ ।।
अयोग्या दीप्तिरहिताः काष्ठाः कृष्टावनिष्ठिताः ।
कदाचिद् विजने राजा सुतानिष्टाविशङ्कितः ॥ ९९ ॥ ९९. जो कि अयोग्य दीप्त रहित, काष्ठ जोती भूमि पर पड़ी रहती है,' (इस प्रकार) राजा ने एकान्त में पुत्रों के अनिष्ट को विशेष आशंका करके
अधुना करणीयं किं मयेति व्यक्तमब्रवीत् ।
तत्समक्षं बुधा येऽपि तत्प्रसङ्गाद् बभाषिरे ।। १०० ॥ १००. 'अब मुझे क्या करना चाहिए' ? यह उसने कहा। उसके समक्ष जो विद्वान थे उन लोगों ने उसके प्रसंग से कहा
राजन्नुत्साद्यते देशो राज्यलुब्धैः सुतैस्तव ।
एकस्यैव निजं राज्यं किं नार्पयसि यो हितः ॥ १०१ ।। १०१. 'हे ! राजन् !! राज्य लोभी तुम्हारे पुत्र देश को नष्ट कर रहे हैं। अतः क्यों नहीं किसी एक हितैषी (पुत्र) को अपना राज्य अर्पित कर देते ?'
पाद-टिप्पणी:
मामला हवाला तकदीर कर दिया (पीर हसन १०१. (१) राज्य अर्पित : 'बाज़ खैर- पृ० : १८५ )। ख्वाहों ने सुल्तान से अर्ज की कि वह अपने बेटों में तवक्काते अकबरी में उल्लेख है-'कुछ समय से किसी एक को अपना वलीअहद बनाये। मगर पश्चात् जब सुल्तान वृद्धावस्था के कारण निर्बल सुल्तान ने उनकी नाशाइस्ता हरकात के बमूजिव हो गया और इसके अतिरिक्त रुग्ण रहने लगा तो