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१:७ : ८९-९५] श्रीवरकृता
२०७ बहाम ज्येष्ठो भ्रातायं द्विष्टो दुश्चेष्टितैः कृतः ।
स्मृतपूर्वापकारोऽयं हितो जातु न ते भवेत् ॥ ८९॥ ८९. 'हे ! बहराम !! ज्येष्ठ भ्राता के दुश्चेष्ठाओं के कारण द्वेषी हो गया है, पूर्व के अपकारों को स्मरण करके, यह तुम्हारा कभी हितैषी नही होगा।
अन्यं यं सेवसे भक्त्या दुराशाग्रस्तमानसः ।
स कथं स्वं सुतं त्यक्त्वा कार्ये त्वां समपेक्षते ॥ ९० ॥ ९०. 'दुराशाग्रस्त मनवाले तुम, भक्तिपूर्वक जिस दूसरे की सेवा करते हो, वह अपने पुत्र (हसन) को त्यागकर, कैसे कार्य में तुम्हारी अपेक्षा करेगा।
तस्मात् त्वं पैशुनाचारं मा कृथा भाविदुःखदम् ।
मदेकशरणो भूत्वा कालं नय ततोऽचिरात् ॥ ९१ ॥ ९१. 'इसलिये भविष्य में दुःखप्रद पैशुनता मत करो। केवल मेरे शरण में रहकर, समय बिताओ इससे शीघ्र ही
प्राप्स्यन्ति संपदः सर्वा न्यायमार्गस्थितस्य ते ।
अन्यथा तैलतप्तायाकटाहफरणीनिभः ।। ९२ ॥ ' ९२, 'न्याय मार्ग में स्थित तुम्हें सभी सम्पत्तियाँ प्राप्त होंगी। अन्यथा (हे मूढ़) तैलतप्तपूर्ण लौह कटाह (कड़ाही) फरणी (कलची) सदृश
तद्वैरानलमध्यस्थो मुग्ध दग्धो भविष्यसि ।
श्रुत्वेति स पितुर्वाक्यं मुग्धधीरब्रवीदिदम् ।। ९३ ॥ ९३. 'उसके वैराग्नि मध्य स्थित (तुम) जल जाओगे।' वह मूढ़बुद्धि इस प्रकार पिता का वाक्य सुनकर यह बोला
देव मे पितृवत् स्नेहं हाज्यखानः करोत्यलम् ।
सेव्यः स एव मे भाति तं त्यजे नैव जातुचित् ॥ ९४ ॥ ___९४ 'हे ! देव !! हाजी खाँन मुझ पर, पिता के समान अधिक स्नेह करता है। मुझे वह सेवनीय प्रतीत होता है । उसे कभी नहीं छोड़ेगा।
रक्षिष्यति स मां काले कोऽन्योऽस्मादधुना बली । ... श्रुत्वेति भूपः प्रोवाच क्रुद्धस्तं कृतनिश्चयम् ।। ९५ ॥
- ९५. 'वह समय पर मेरी रक्षा करेगा, इस समय दूसरा कौन इससे बली है ?' यह सुनकर, क्रुद्ध होकर, राजा ने निश्चय किये हुए, उससे कहा