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जैनराजतरंगिणी
[१:७:३९-४४ इत्थं ताम्रमये पट्टे श्रीबकाशीशनिर्मिता ।
प्रशस्तिरासीत्तां राजधानीवही ररक्ष च ॥ ३९॥ ३९. इस प्रकार श्रीवकाशीष निर्मित प्रशस्ति ताम्रमय पट्टपर अंकित थी। उसकी राजधानी की अग्नि ने रक्षा की।
प्रदीप्तः सुकृतोत्कर्ष इवास्यैव महीपतेः ।
अरक्षद् राजधानी तां मध्यस्थामपि पावकः ॥ ४० ॥ ४०. इस राजा के प्रदीप्त सुकृति के उत्कर्ष सदृश, पावक ने 'अपने' मध्य स्थित, उस राजधानी की रक्षा की।
श्रुत्वा दग्धं पुरं राजा शुचा दग्धो विदग्धधीः ।
अचीकरन्नवं तूर्णं चारु दारुमयैगृहैः ॥ ४१ ॥ ४१ चतुर-बुद्धि राजा पुर को दग्ध हुआ सुनकर, शोक दग्ध हो गया और शीघ्र ही दारुमय ग्रहों से (उसे) सुन्दर एवं नवीन बनवा दिया।
राजा वराहमूलीयां राजधानी पुरा कृताम् ।
आनीय विदधे तत्र राजावासं नवं महत् ॥ ४२ ।। ४२. राजा ने वारहमूला में पूर्व निर्मित राजधानी लाकर, वहाँ एक बड़ा और नवीन नृप आवास निर्मित कराया।
तन्त्रायकनृपागारं सेतुमत्तोम्भितं नवम् । ___ क्रमराज्यश्रियो हारं सारं सुय्यपुरं व्यधात् ॥ ४३ ॥
४३. तन्त्रायक नृपागार से युक्त तथा सेतु एवं अटारी आदि से पूर्ण, क्रमराज्य' लक्ष्मी के हार स्वरूप, श्रेष्ठ सुय्यपुर का नवीनीकरण किया।
सेतुमत्तोम्भिते तत्र गृहश्रोणिमणिबजे ।
राजधानी स्फुरच्छत्रा धत्ते मध्यमणिश्रियम् ॥ ४४ ॥ ४४. अटारियों से पूर्ण, गृहपंक्ति रूपी मणि समूह के मध्य स्फुरित, क्षत्रवाली राजधानी मध्य मणि के समान शोभित हो रही थी।
नहीं पताका है। वह सेतु राजा की पुण्य-पताका सन्दिग्ध है । तन्त्र का अर्थ स्पष्ट नहीं है। थी। यह अर्थ अभिप्रेत है।
४३. (१) क्रमराज्य : कमराज . द्रष्टव्य पाद-टिप्पणी :
टिप्पणी १:१:४० । श्री दत्त ने सेतु का स्विमिंग अर्थात् झूला पुल (२ ) सुय्यपुर : द्रष्टव्य टिप्पणी १ : ३ : अनुवाद किया है। पद के प्रथम चरण का पाठ ९१ ।