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जैनराजतरंगिणी
स कुमारसरो यावत् सुकुमारं स्मरन् पथि ।
कुमारोऽम्बुपान सुखं पुण्यमिवासदत् ।। १०६ ।।
१०६ कुमार सहित उस राजा ने मार्ग में कुमारसर' तक सुकुमार' का स्मरण करते हुए, अम्बुपान कर, पुण्य सदृश सुख प्राप्त किया ।
पाद-टिप्पणी :
[१:५ : १०६ - १०८
शृण्वन् स्थानाभिधाः पुण्याः स्पृशंस्तीर्थजलं शुभम् ।
पिबन् सतुहिनं तोयं पश्यन् वनतरुश्रियम् ॥ १०७ ॥
१०७. पुण्यशाली स्थानों का नाम श्रवण करते, शुभ तीर्थजल का स्पर्श करते, तुहिन सरित जल पीते, वन वृक्षों की शोभा देखते
जिन्नोषघिपुष्पाणि
पञ्चेन्द्रियसुखप्रदाम् ।
तीर्थयात्रां विधायेत्थं नगरं प्राप भूपतिः ।। १०८ ।।
१०८. औषध पुष्पों की सुगन्ध लेते, वह राजा इस प्रकार पञ्चेन्द्रियों की सुखप्रद तीर्थ - यात्रा करके, नगर में पहुँचा ।
इति जैनराजतङ्गिण्यां क्रमसरोयात्रावर्णनं नाम पञ्चमः सर्गः ॥ ५ ॥
इस प्रकार जैन राजतरंगिणी में क्रमसर यात्रा वर्णन नामक पाँचवा सर्ग समाप्त हुआ ।
पाठ - बम्बई ।
१०६. ( १ ) कुमारसर : वर्णनक्रम से कुमारसर के स्थान पर क्रमसर होना चाहिए। इसका पुनः उल्लेख नही मिलता ।
( २ ) सुकुमार : एक तीर्थस्थल । तक्षक कुल उत्पन्न एक नाग है। यह जनमेजय के नागयज्ञ में भस्म किया गया था ( आदि० ५७ : ९ ) । शाकद्वीप के जलधार पर्वत के निकटस्थ एक वर्ष है भीष्म० ११ : २५ ) ।
पाद-टिप्पणी :
१०८. उक्त श्लोक के प्रथम पद के द्वितीय चरण का पाठभेद सन्दिग्ध है ।
उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ४९४वी पंक्ति है ।
बम्बई संस्करण में १०८ श्लोक इस सर्ग के यथावत तथा कलकत्ता संस्करण के १०७ श्लोक है । कलकत्ता संस्करण में २०वीं श्लोक नहीं है । कलकत्ता संस्करण का ३८८ से ४९४ पंक्ति संख्या के श्लोक क्रम से इस सर्ग में सम्मिलित है ।