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भूमिका लद्दाख में आज भी है। काश्मीर में बौद्ध एवं हिन्दू धर्म एक साथ माना जाता था। जनता भगवान् बुद्ध की पूजा अवतार रूप में करती थी।
श्रीवर के वर्णन से प्रगट होता है कि पन्द्रहवी शताब्दी में कुछ बौद्ध धर्मावलम्बी काश्मीर में थे । जनता शेष भारत के समान बुद्ध भगवान् की पूजा भूल नहीं सकी थी। श्रीवर का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है'सय्य भाण्डपति ने विजयेश्वर में विहार बनवाया, जो धर्म संघादि उपहार से, बौद्ध मार्ग सदृश शोभित हुआ।' (३:२०३) श्रीवर स्वयं प्रत्यक्षदर्शी था। अतएव उसका वर्णन अविश्वनीय नही है। लद्दाखी बौद्ध काश्मीर के खण्डित बौद्ध उपासना स्थलों पर शताब्दियों तक आते रहे। जैसे जरूसलम में यहूदी पुराने टूटे, मन्दिर की दीवाल पर, जाकर माथा, इसराइल राष्ट्र बनने के पूर्व टेकते थे। पूर्वकाल की स्मृति में आँसू बहाते थे। जिसके कारण दिवाल का नाम ही वीपिंग वाल हो गया था। भारत में भी मथुरा के जन्म स्थान, अयोध्या के जन्मभूमि तथा काशी में विश्वनाथजी के भग्न मन्दिर ज्ञानवापी में पूजा और यात्रा आज भी की जाती है।
तन्त्र-तन्त्र पुरातन दार्शनिक धर्म का स्थान ले रहा था। यह क्रिया तन्त्रो के उदय के साथ काश्मीर में आरम्भ हो गयी थी। शैव, वैष्णव, गाणपत्य, सौर आदि अनेक तन्त्रों की शाखा प्रशाखाओं का केन्द्र काश्मीर था। तन्त्र के विकास में काश्मीर ने यथेष्ट योगदान किया है। श्रीवर ने गण चक्रोत्सव आदि तान्त्रिक क्रियाओं का उल्लेख किया है (१:३:४६)।
निर्माण-पूर्वकालीन देवस्थान खानकाह, मसजिद, हुजरा, मदरसा, जियारत आदि मे परिणत कर लिये गये थे (३:१९४) श्रीवर मुसलिमों द्वारा विहार, मठ आदि निर्माण का उल्लेख करता है, तो उनका अर्थ मुसलिम धार्मिक निर्माणों से लगाना चाहिए । श्रीवर ने इसे स्वयं लिखा है-'गोला खातून नाम की रानी, जो राजमाता थी। उसने भी मदरसा नाम से विशाल धर्मशाला का निर्माण कराया' (३:१७५)।
सुल्तान जैनुल आबदीन के पश्चात् राज्य की सहिष्णु नीति पुनः बदल गयी। मुसलिम शरियत के अनुसार नवीन देवस्थानों का निर्माण नहीं किया जा सकता था। परन्तु प्राचीन की मरम्मत की जा सकती थी। तथापि कुछ उदाहरण मिलते है । हिन्दुओ ने निर्माण कार्य किया था। वे अपवाद मात्र है।
धर्म विपर्यय के परिणाम के विषय मे श्रीवर लिखता है-'इस देश मे जब लोग प्रवंचना द्वारा (धन) संचय करते है और तत्-तत् धर्म विपर्यय के कारण अपनी मायावी निस्सारता प्रकट कर देते है, उस समय विविध प्रकार के उपद्रवों से उत्पन्न तूफान, अग्निदाह, प्रचण्ड हिमपात से घोर शीत एवं रोगादि प्रजा को पीड़ित करते है' (३:२६९) ।
काश्मीरी मुसलमान हिन्दू रीति रिवाज को तिलांजलि नहीं दे सके थे। ये पुराने रीति रिवाजों को मानते थे । सुल्तान जैनुल आबदीन स्वयं हिन्दू रीति रिवाज को मानता था । उत्सवों में भाग लेता था। विजयेश्वर आदि की यात्रा भी करता था। शारदापीठ जो अब पाकिस्तान में है, वहाँ की भी यात्रा किया था। उसने दीप मालिका (१:४:१३,१:४:४१) चैत्रोत्सव पुष्पलीला (१.४:२) यात्रा (१:५:१२) नागयात्रा (१:३:४६) वितस्ता जन्म (३:५३) आदि में भाग लिया था। जैनुल आबदीन के पश्चात् भी राजकुटुम्ब रीति रिवाज को मानता रहा। श्रीवर वर्णन करता है-'हिन्दुओं के आचार रूपी कमल के लिये, रवि प्रभा सदृश, उसे स्मरण कर, सब लोग उस गोला खातून के लिये रुदन किये' (३:२१६)।