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भूमिका अग्निदाह काश्मीर में बने काष्ट के भवनों तथा आततायियों के कारण होता था। यदि एक स्थान पर अग्नि लगती थी, तो मुहल्ला साफ हो जाता था । अग्नि पर नियन्त्रण पाना कठिन होता था।
लौकिक : ४५३६ = सन् १४६० ई० में दुभिक्ष हुआ था। दो वर्ष बीतते-बीतते लौकिक ४५३८सन् १४६२ ई० में वृष्टि के साथ आकाश से घूल वर्षा हुई । (१:३:३) भयंकर वर्षा होने लगी। पादप जैसे अश्रु बिन्दु गिराने लगे। वितस्ता, लेदरी, सिन्धु, भिप्तिका ने अपनी उग्र बाढ़ से, तट भूमि डुवा दिया । जल प्रवाह कुपथगामी हो गया। वक्षादि जड़ से उखड़ने लगे। पशु, पक्षी, प्राणी, गृह, धान्यादि सबका हरण जल प्लावन करने लगा।
विशोका नदी का जल विजयेश्वर में प्रवेश कर गया। घर डूब गये। विशोका ने अपना नाम गुण भूलकर चारों ओर शोक उत्पन्न कर दिया। वितस्ता पर सुल्तान जैनुल आबदीन द्वारा जैन कदल में निर्मित गृह पंक्ति, जलमग्न एवं भग्न हो गई। श्रीनगर मे जल आ गया । उलर लेक (महापद्यसर) का जल दुर्गपुर के अन्दर प्रवेश कर गया। उलर लेक-जैसे ही, उसके समीप बाढ़ के कारण दूसरे सरोवर होने लगे थे । स्थानीय मकान जल मे डूब गये। वितस्ता का प्रवाह उलट गया। कृषि जल मे डूब गई । राजा नाव पर चढकर, बाढ़ का दृश्य देखने तथा प्रजा को आश्वासन देने के लिए भ्रमण करने लगा । जल से आबादी की रक्षा करने के लिए, सुल्तान ने जयापीडपुर के समीप, जैन तिलक नगर की स्थापना की।
दुराचार: समाज का जब पतन होता है, तो दुराचार फैलता है। समाज का पतन उसी समय होता है, जब जनता की बुराई के प्रति प्रतिरोधात्मक शक्ति समाप्त हो जाती है । जैनुल आबदीन अस्वस्थ रहने लगा। दुर्बल हो गया। उसके पुत्र उच्छृङ्खल हो गये। सुल्तान राज कार्य मे उदासीन हो गया। ज्येष्ठ पुत्र आदम खाँ राजकीय गौरव एवं मर्यादाएँ समाप्त कर, व्यसनी हो गया। श्रीवर लिखता है-'अनिष्ट सदृश वह पापी जहाँ-जहाँ पर बैठा, वहाँ पीड़ित ग्रामीणों के आक्रन्दन से दिशाएँ मुखरित हो उठी । उपग्रह सदृश अति उग्र उसने प्रसाद एवं कठोरतापूर्वक, दान देकर दृढ की गई पृथ्वी को पद-पद पर अपहृत कर लिया। लोभ ग्रस्त उसने कही रीति से, कहीं भीति से, कहीं नीति से, विलोभित करता हुआ, बलात्कार पूर्वक, कितने धनों का अपपरण नहीं किया ? लोभ वश वह सामान्यजनों के समान लवन्यों के घर मित्रता का बहाना बनाते हुए जाकर उन लवन्यों को धन से ठग लिया। युक्ति पूर्वक लाई गई जार कृत भयभीत स्त्रियों को प्रताड़ित करते हुए, उसके सेवक समूह ने उसके कहने पर, ग्रामीणों को दण्डित किया। उस समय अति उग्र वह विनिग्रह स्थानों पर सावधान मति होकर तार्किक की तरह राष्ट्रियों के लिए दुर्जय हो गया। जिसके गृह में सुन्दर स्त्री, बहन, बेटी आदि थी, बलात् प्रवेश कर, उसके निर्लज्ज सेवकों ने भोग किया । (१.३६६-७३) सुल्तान अपने पुत्र तथा राज सेवकों का ब्यवहार सुनकर, इतना दुःखो हुआ कि वह राजप्रासाद से लज्जा के कारण बाहर नहीं निकल सका।'
डल लेक : सर्व प्रथम श्रीवर ने 'डल' शब्द का प्रयोग किया है। एक स्थान पर केवल 'डल' (१:५:३२) और दूसरे स्थान पर 'डल सर' शब्दों का उल्लेख मिलता है। (४:११८) प्रथम स्थान पर 'डल' का वर्णन करते समय, उसे अगाध सरोवर लिखा है। उसके पूर्व इसका नाम सुरेश्वरी सर था । ज्येष्ठ रुद्र समीपस्थ, सर से भी इसे अभिहित किया गया है। एक मत है कि 'डल' तिब्बती शब्द है। अर्थ निस्तब्धता अथवा खामोशी होता है।
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