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श्रीवरकृता तस्याग्रे योग्यतादर्शि यैः शिल्पकविकौशलात् ।
तथा प्रसादमकरोत् तत्परास्ते यथाभवन् ॥ ३२ ॥ ३२. उसके समक्ष जिन लोगों ने शिल्प एवं कवि कौशल में योग्यता प्रदर्शित की, उन लोगों को उसने उसी प्रकार अनुगहीत? कया, जिससे वे उसके प्रति और उत्साहित हए।
तथा जालन्धरनाथ गुरुभाई थे। दोनों की साधना- गोरक्षपद्धति का योग के प्रति रुचि होने के पद्धति एक दूसरे से भिन्न थी।
कारण मैने अध्ययन किया है। पातंजल योग एवं काश्मीरी कवि आचार्य अभिनवगुप्त ने आदर गोरक्षपद्धति मे अन्तर है । पातंजल योग के आठ के साथ मत्स्येन्द्रनाथ का उल्लेख किया है। उक्त- अंग-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, योगियों के काल के विषय में एक मान्यता नही है। ध्यान, धारणा और समाधि है। किन्तु गोरक्षपद्धति मे एक मत है कि वह नवी शताब्दी के उत्तरार्ध में हये यम एवं नियम को स्थान न देकर, केवल छः अंग ही थे। अभिनवगुप्त का समय सन् ९५०-१०२० ई० के माने गये है । 'ह' का अर्थ है-सूर्य एव 'ठ' का अर्थ मध्य निश्चित हो चुका है। अतएव मत्स्येन्द्र का है-चन्द्रमा इनका योग हठयोग है। प्राण एवं अपान समय सन् १०२० ई० के. पूर्व ही रखा जायगा। वायु की संज्ञा सूर्य एवं चन्द्र से दी गयी है। इनका तेरहवीं शताब्दी में गोरक्षनाथ जी के स्थान गोरखपुर ऐक्य करानेवाला जो प्राणायाम है, उसको हठयोग का मठ ध्वन्स कर दिया गया था। गोरक्षनाथ कहते है । अतएव हठयोग की साधना पिण्ड अर्थात् जी ने २८ ग्रंथों की रचना किया था। यह शरीर को केन्द्र मानकर परा शक्ति को प्राप्त करने निर्विवाद सिद्ध हो गया है। इनके अतिरिक्त ३८ का प्रयास किया जाता है। ग्रन्थों के विषय मे किम्बदन्तियाँ है। उन्हीं की जैनुल आबदीन कथा, मुद्रा आदि योगियों को रचनाये है।
दान करता था। इससे प्रकट होता है कि जैनुल गोरक्षनाथ जी द्वारा प्रचलित योगी सम्प्रदाय
आबदीन का झुकाव हठयोग की ओर था। श्रीवर की १२ शाखायें है। पश्चिमी भारत में वे धर्मनाथी इसीलिये उसे गोरक्षनाथ के समकक्ष रखता है। कहे जाते है । इस पंथ के अनुयाई कान फाडकर मुद्रा (३) नागार्जुन : बौद्धदर्शन शून्यवाद के प्रतिधारण करते है। उन्हें कनफटा, दर्शनी तथा गोरक्ष- ष्ठापक तथा माध्यमिक बौद्धदर्शन के आचार्य थे। नाथी कहते है। वे गोरक्षनाथ को अपना आदि गुरू नागार्जन के नाम से वैद्यक, रसायनविद्या, तन्त्र के मानते है। दर्शन का अर्थ कुण्डल भी है। कान ग्रन्थ भी उपलब्ध है। इनका काल द्वितीय शताब्दी फाड़कर उसमें कुण्डल पहनते है । विद्वानों का मत उत्तरार्ध है। दूसरे नागार्जुन सिद्धों की परंपरा में है। गोरखनाथ के पूर्व भी नाथ सम्प्रदाय था । नाथ हए है । इनका काल आठवी तथा नवीं शती था। आगमवादी नहीं है। शिव को अवतार मानते है। यह पादलिप्त सूरि के शिष्य थे। वे रसशास्त्र काश्मीरी अभिनवगुप्त ने मच्छंद विभु का स्तवन पारंगत थे। पारद से स्वर्ण बनाने में सफल हुए थे। किया है। गाथा है कि गोरखनाथ ही महेश्वरानन्द श्रीवर का अभिप्राय दूसरे नागार्जुन रसज्ञ से है। हैं । काश्मीर में महार्थ मंजरी नामक एक ग्रन्थ क्योंकि नागार्जुन का विशेषण उसने रसज्ञ दिया है। मिलता है । महेश्वरानन्द जी, महाप्रकाश (मत्स्येन्द्र- जैनुल आबदीन भी लोगों को औषधि आदि देता था नाथ) के शिष्य थे। काश्मीरी ग्रन्थ अमरौघ शासन अतएव श्रीवर ने रसज्ञ आचार्य नागार्जुन से उसकी ग्रन्थ गोरखनाथ कृत माना जाता है।
उपमा दी है।