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जैनराजतरंगिणी
सुभाषितानि संशृण्वन् संगीतानि जलान्तरे । समारोहावरोहाभ्यां स पौराशिषमग्रहीत् ।। ५४ ।।
५४. जल में सुभाषित संगीतों को सुनते हुए, वह आरोहारोह (उतरने चढ़ने) अवसर पर, पुरवासियों का आशीर्वाद ग्रहण किया ।
पूजार्थं
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प्रस्फुरत्पौरदत्त दीपावलिच्छलात् ।
वितस्तान्तरमायाता तीर्थकोटिरिवाद्य तत् ।। ५५ ।।
५५. पूजा के लिए पुरवासियों द्वारा प्रदत्त स्फुरित होते दीपावलियों के व्याज से मानो वितस्ता में आये करोड़ो तीर्थ ही प्रकाशित हो रहे थे ।
पारावारतटप्रत्ता दीपमालास्तदा अर्चनाप्तसुरो मुक्तसुवर्ण कुसुमश्रियम्
[ १ : ३ : ५४-५७
दधुः ।
॥ ५६ ॥
५६. उस समय पारावार तट पर प्रश्रित दीपमालायें अर्चना प्राप्त देवताओं द्वारा उन्मुक्त सुवर्ण पुष्प की शोभा धारण कर रही थीं ।
वितस्तावलिपूजाप्तनागरीमुख निर्जितः
बन्द हो गया है। डॉ० श्री परमू के अनुसार सन् १९४७ ई० अर्थात् आजादी के बाद बन्द हो गया है । कुछ वृद्ध काश्मीरी ब्राह्मण मनाते है । इस दिन कन्याओं को भेंट दिया जाता है ( पृ० : १४३ ) । द्रष्टव्य : नीलमत पुराण : ३०३-३२२ । पाद-टिप्पणी :
५४. बम्बई का ५३वां श्लोक तथा कलकत्ता की २६४वीं पंक्ति है । पाद-टिप्पणी :
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लज्जयाकम्पतेवेन्दुः सेवाप्तः प्रतिमाच्छलात् ॥ ५७ ॥
५७. वितस्ता में बलि' पूजा करने के लिए आयीं, नगर स्त्रियों के मुख से निर्जित होकर, प्रतिमा के छल से सेवा हेतु आगत चन्द्रमा मानो लज्जा से काँप रहा था ।
५५. बम्बई का ५४वां श्लोक तथा कलकत्ता की २६८वी पंक्ति है । कलकत्ता के 'दीपबलि' के स्थान पर बम्बई का 'दीपावलि' पाठ रखा गया । पाद-टिप्पणी :
५६. बम्बई का ५५ वां श्लोक तथा कलकत्ता की २७९वी पंक्ति है ।.
पाद-टिप्पणी :
बम्बई का ५६वां श्लोक तथा २७०वी पंक्ति है ।
कलकत्ता की
५७ (१) बलि : आजकल बलि का अर्थ पशुबलि लगाया जाता है, यह भ्रामक है । बलि का अर्थ आहुति भेंट तथा दैनिक पंचमहायज्ञों में एक यज्ञ है । पूजा, आराधना, चावल ( शाली), अनाज, घी, दूध आदि देवमूर्ति, देवता, नदी, सरोवर, श्रोतस्विनी तथा नागों पर चढ़ाया जाता है । देवता को नैवेद्य अर्पण एवं जीव-जन्तुओं को भोजन आदि देना बलिदान कहा गया है ।
बलि का अर्थ है :
पाठो होमस्वातिथीनां सपर्या तर्पणः बलिः । एते पंचमहायज्ञा ब्रह्मयज्ञादिनायकाः ॥
अमर० : २ : १७ : १४ ।