________________
१४८
जैनराजतरंगिणी
[१ : ५ : ३६-३९ श्रीपर्वतोऽपि षट्क्रोशस्तीर्थस्नानफलेप्सया ।
स्वसङ्गतिच्छलाद् यत्र मज्जतीव दिवानिशम् ।। ३६ ॥ __ ३६ छ कोश तक विस्तृत श्रीपर्वत' भी, तीर्थस्नान के फलप्राप्ति की इच्छा से, अपने संसर्ग के व्याज से, मानो रात-दिन स्नान करता है।
शैवलन्ति द्रमा यत्र कमठन्ति च पर्वताः।
पुर्यश्च नागलोकन्ति जलान्तर्यत्र बिम्बिताः ।। ३७ ।। ३७. जहाँ जल में प्रतिबिम्बित द्रुम शैवाल की तरह, पर्वत कच्छप की तरह एवं नगरियाँ नागलोक' की तरह लगती (आचरण करती) थी।
यच्चलत्तृणभूशालिकुलानि सरसीरुहाम् ।
तत्सौगन्ध्यमिवाघ्रातुमानतानीक्षते जनः ।। ३८ ॥ ३८. लोग देखते थे कि चलते तृण एवं भूमि की शालिपुज, मानो कमलों की सुगन्धि प्राप्त करने के लिये, आनत हो रहे है।
यल्लङ्कायुगलोत्प्रेक्षास्वोदयद्वयसंभ्रमात् ।
जाने याति रविः कुर्वन् प्रत्यब्दमयनद्वयम् ॥ ३९ ॥ ३९. युगल लंका' देखने के कारण, अपने दो उदय के भ्रम से, सूर्य मानो, प्रतिवर्ष दो अयन करते हए, जाते हैं
पाद-टिप्पणी :
बने है। वे चारों ओर स्वर्ण ईटों तथा मणि-मुक्ताओं कलकत्ता एवं बम्बई में 'सङ्गगति' मुद्रित है।
से अलंकृत है। अनेक वापियाँ स्फटिक मणि की भ्रम के कारण 'सङ्गाति' हो गया है।
सोपानों से सुशोभित है । निर्मल जल की नदियाँ है। ३६. (१)श्रीपर्वत · किसी पर्वत का नाम सुशोभित मनोहर वृक्ष है । नागलोक का बाह्य द्वार काश्मीर मे था। एक दूसरा श्रीपर्वत आन्ध्र प्रदेश
शत योजन लम्बा तथा पाँच योजन चौड़ा है (आश्व० : गन्तुर जिला में है। नागार्जुन का वहाँ निवास
५८: ३७-४० ) । नर्मदा तटस्थित तपोवन तीर्थ मे स्थान था।
स्नानकर्ता नागलोक प्राप्त करता है (मत्स्य० पाद-टिप्पणी:
१९१, ८४ )। ३७. (१) नागलोक : भूलोक के नीचे स्थित पाद-टिप्पणी : पाताल लोक नागों का प्रमुख निवास स्थान है ३९. ( १ ) युगल लंका : सोना लंका तथा (विष्णु ० ४ : ३ : ७; उद्योग० : ९७ : १)। नाग- रूपा लंका से यहाँ तात्पर्य है (वहारिस्तान० : राज वासुकी नागलोक का राजा था। इस देश की पाण्डु० : फो० ५३)। स्थिति भूतल से सहस्त्रों योजन दूर थी (आश्व० : (२) अयन : सूर्य की विषुवत् रेखा से उत्तर ५७ : ३३; आदि० : १२७ : ६८) । यह लोक सहस्त्र एवं दक्षिण की गति । जिसे उत्तरायण तथा दक्षिणायोजन विस्तृत है। इसके चारों ओर दिव्य परकोटे यण कहते हैं। उत्तरायण सूर्य जब मकर रेखा