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१:४:५३-५४ ] श्रीवरकृता
१३५ दत्तमार्गोपचारार्था राष्ट्रिया दर्शनागताः ।
प्राप्तपट्टपरीधानमानतुष्टा न केऽभवन् ॥ ५३ ।। ५३. दर्शनागत राष्ट्रियों को मार्ग व्यय दिया। इस प्रकार रेशमी वस्त्र एवं मान प्राप्त कर कौन से लोग सन्तुष्ट नहीं हुए? .
तान् विलोक्य भवनोपवनादीन्
पुष्पपूरपरिपूरितनौकः । संस्तुवन्
मडवराज्यनिवासान् प्राप जैननृपतिर्नगरं स्वम् ॥ ५४ ॥ ५४. उन भवन उपवन आदि को देखकर मडवराज निवासियों की प्रशंसा करते हुए, पुष्प राशि से नाव को परिपूर्ण कर, जैन नपति अपने नगर पहुंचा।
इति जैनराजतरङ्गिण्यां पुष्पलीलावर्णनं नाम चतुर्थः सर्गः ।। ४ ।।
__ जैन राजतरंगिणी में पुष्पलीला वर्णन नामक चतुर्थ सर्ग समाप्त हुआ। पाद-टिप्पणी :
वी पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का ५४वा श्लोक है। ५३. कलकत्ता संस्करण की ३८६वी पंक्ति है। उक्त सर्ग में बम्बई संस्करण में ५४ श्लोक
यथावत है । कलकत्ता संस्करण के पंक्ति ३३५ से पाद-टिप्पणी :
३८७ अर्थात् ५३ श्लोक है। बम्बई संस्करण का ५४. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ३८७ एक श्लोक संख्या २६ कलकत्ता संस्करण में नही है।