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पञ्चमः सर्गः अत्रान्तरे सुतप्राप्त्या निश्चिन्तः सुकृतोद्यतः ।
कुल्या नवनवाः कर्षन् प्रतिष्ठारसिकोऽभवत् ॥ १॥ १. इसी बीच पुत्र प्राप्ति से निश्चिन्त एवं सत्कार्य हेतु उद्यत ( राजा ) नवीन कुल्याएं खुदवाते हुए, प्रतिष्ठा के प्रति रसिक हो गया।
कविः श्रीजोनराजो यां स्वसंदर्भान्तरेऽब्रवीत् ।
ग्रन्थविस्तारभीत्या तद्वर्णनं न मया कृतम् ॥ २ ॥ २. कवि श्री जोनराज ने जिन्हें अपने ग्रन्थ में लिखा है, ग्रन्थ विस्तार भय से वह वर्णन नहीं किया है।
एकैवास्त्यमरावती ननु पुरी साज्ञातनिर्माणका
तत्राप्यत्र सदा विमानवसतिर्देवादिषु श्रूयते । सोऽभूद् भूमिपुरंदरः पुरशतं कुर्वन्नवं सर्वतो
यौते निवसन्ति मानसहितास्ते भूमिदेवादयः ॥३॥ ___३. स्वर्ग में एक ही वह पुरी अमरावती' है, जिसका निर्माण अज्ञात है। वहाँ भी सदा विमान निवास ही, देवता आदि में सुना जाता है। यहाँ पर सब ओर से सैकड़ों पुर का निर्माण करता, वह भूमि पुरन्दर हुआ, जिनमें मान सहित भूमि देव आदि निवास करते हैं ।
श्रीजैननगरे पञ्चदशेऽब्दे या कृता पुरा ।
राजधानी नवात्युच्चा विद्धा देवगृहोपरि ।। ४ ।। ४. पन्द्रहवें वर्ष जैन नगर में जो नवीन राजधानी बनायी वह अति ऊँची एवं अपर देवगृह विद्ध थी। पाद-टिप्पणी :
सिंहासन सुवर्ण का था। चारो ओर सुन्दर रमणीय १. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ३८८वीं उपवन थे। जलस्रोत प्रवाहित थे। वहाँ सर्वदा पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का प्रथम श्लोक है। वाद्य ध्वनि होती रहती थी (वन०:४२ : ४२; पाद-टिप्पणी:
उद्योग० १०३ : १; अरण्य० ४८ : १०); यहाँ जरा, ३. (१) अमरावती : देवताओं की पुरी मृत्यु एवं शोक नहीं होता। अर्थात इन्द्रपुरी, सुरपुरी है। इसका निर्माण विश्वकर्मा पादटिप्पणी: ने किया था। इसमें हीरे की स्तम्भावली थी। ४. ( १ ) पन्द्रहवें वर्ष : सप्तर्षि ४५१५ =