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१:४ : ४१-४२]
श्रीवरकृता तद्वाचिकाङ्गिकाहार्यसात्त्विकाभिनयोज्ज्वलम् ।
नाटयं दृष्ट्वा जनः सर्वश्चतुमुखमशंसत ॥ ४१ ।। ४१ आंगिक', वाचिक, आहार्य, एवं सात्विक अभिनय से सुन्दर उस नाटक को देखकर चतुमखी प्रशंसा किये।
इत्थं त्रिवर्गविद्राजा त्रिजगत्ख्यातपौरुषः । ___ त्रियामास्त्रिविधैर्नृत्यैरनयत् त्रिदशोपमः ॥ ४२ ।।
४२. इस प्रकार तीनों लोक में प्रख्यात पौरुष एवं देवोपम त्रिवर्ग वेत्ता राजा ने तीन प्रकार के नृत्यों से तीन रात्रियाँ व्यतीत की।
के प्रकार का एक तन्तुवाद्य होता है। द्रष्टव्य भवेदभिनयोऽवस्थानुकारः स चतुर्विधः, आङ्गिकी, टिप्पणी : २ ५।
वाचिकाश्चैवमाहार्यः सात्विकस्तथा ( १७४)। पाद-टिप्पणी :
भरत मुनि ने भी यही मत प्रकट किया हैकलकत्ता संस्करण की ३७४वी पंक्ति है। आङ्गिको वाचिकश्चैव ह्याहार्यः सात्विकस्तथा।
४१. (१) आंगिक : शरीर की चेष्टाओं से चत्वारो ह्यभिनया ह्यते विज्ञेया नाट्य संश्रयाः ॥ व्यक्त होनेवाला अभिनय, अर्थात् अग के विकार, का नाम आङ्गिक हैनाटक के पाँच अंग आङ्गिक, वाचिक तथा
कलकत्ता संस्करण की ३७५वी पक्ति है। आहार्य, तीन प्रकार के अभिनय तथा गान एवं वाद्य ४२. (१) त्रिवर्ग : सांसारिक जीवन के तीन मिलकर नाटक के पाँच अंग बनते है।
पदार्थ-धर्म, अर्थ एवं काम है । (२) वाचिक : शब्दों द्वारा प्रकट होनेवाला
(२) नृत्य : ताण्डव, नटन, नाट्य, लास्य, अभिनय अथवा शब्दों से युक्त, अभिव्यक्ति वाचक
नृत्य नाम है-ताण्डवं नटनं नाट्यं लास्यं नृत्यं च क्रिया या मौखिक, शब्दिक या मौखिक रूप से अभि
नर्तने । अमर०:१: ७:१०। संगीत के ताल व्यक्त अभिनय ।
और गति के अनुसार हाथ, पांव तथा अंगों के हाव(३) आहार्य : वेष-भूषा, अलकार, श्रृंगार भाव को नृत्य की संज्ञा दी गयी है। नृत्य के दो आदि से व्यक्त होने वाला अभिनय या शृंगार
भेद-ताण्डव तथा लास्य है। उग्र तथा उद्धत चेष्टा अथवा आभूषा से सप्रेषित या प्रभावित अभिनय ।।
जिसमें प्रकट किया जाता है, उसे ताण्डव तथा जिसमें (४) सात्विक : स्वेद, रोमांच आदि के
सुकुमार अंगों से शृंगार आदि कोमल रसों का संचार आन्तरिक भावनाओं को प्रकट करनेवाला अभिनय ।
किया जाता है, उसे लास्य कहते है। ताण्डव एवं 'स्तम्भः स्वेदोऽथ रोमाञ्चः स्वरभंगोऽथ वेपथुः ।
लास्य भी दो प्रकार के पेलिव और बहुरूपक होते वैवर्ण्यमश्रु प्रलप इत्यष्टौ सात्विक गुणाः ।'
है। अभिनवशून्य अंग विक्षेप को पेलिव तथा (५) अभिनय : साहित्यदर्पण अभिनय की जिनमे भावों के अभिनव होते है उन्हें बहुरूपक परिभाषा करता है, जिसे श्रीवर ने यहाँ दुहरा कहते हैं। लास्य नृत्य दो प्रकार का छुरित तथा दिया है
यौवन होता है (द्र० १ : ४: १०)।