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यत्र
जाने
जैन राजतरंगिणो
योगिसहस्रोत्थशृङ्गनादासकृच्छ्र तेः ।
मानस नागोऽपि
४८. जहाँ पर सहस्रों योगियों के श्रृंगनाद को बार-बार सुनने के कारण, मानो मानस नाग' ने भी चक्षु' बन्द कर लिया ।
[ १ : ३ ४८-५१
न्यमीलन्निजचक्षुषी ॥ ४८ ॥
न तदन्नं न तन्मांसं न तत् शस्यं न तत्फलम् ।
न ते भोगा न ये राज्ञा भोजिता भोजनक्षणे ॥ ४९ ॥
योगिनां असहिष्ट नृपो
४९. वह अन्न नही, वह मांस नहीं, वह सस्य नही, वह फल नही, वह भाग नहीं, जिन्हे राजा ने भोजन के समय नहीं खिलाया ।
त्रिविधाश्लील
पाद-टिप्पणी :
४८. बम्बई का ४७ व श्लोक तथा कलकत्ता की २६१वीं पंक्ति है ।
भक्त्या
यदसां
५०. योगियो के मदमत्तता के कारण कहे गये तीन प्रकार की अश्लीलता' को भक्ति के कारण राजा ने कहा, जो कि सामान्य लोगों के लिए भी असह्य था ।
महार्घ्यपरिधानोद्यद्दानमानादिलाञ्छनैः
मयोदितम् । जनैरपि ॥ ५० ॥
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तेषामधिपतिं यत्र मेर स्वसदृशं व्यधात् ।। ५१ ।।
५१. जहाँ पर बहुमूल्य, परिधान, दान, मान, आदि लाञ्छनों से उनके अधिपति मेर (मीर) को अपने समान बना दिया ।
(१) मानसनाग = मनसावल का इष्ट देवता, जैसे पद्यसर का देवता पद्यनाग माना जाता है।
( २ ) चक्षु = मान्यता है कि सर्प चक्षु से सुनते हैं । अतएव उन्हें चक्षुश्रवा कहा जाता है । श्रीवर ने वहीं युक्ति दुहराई है । नाद से लोग कान मूँद लेते हैं । परन्तु सर्पको कान नही होता । चक्षु से देखने और सुनने दोनों का काम लेता है, अतएव उसे चक्षुश्रवा कहते हैं ( कि० : १६ : ४२; न० : १ : २८ ) ।
पादटिप्पणी :
४९. बम्बई का ४८ व श्लोक तथा कलकत्ता की २६२ वी पंक्ति है ।
पाद-टिप्पणी :
५०. बम्बई का ४९ वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की २६३ वीं पंक्ति है । 'त्रिविधाशील' का पाठ कुछ अस्पष्ट है ।
( १ ) अश्लीलता : अश्लीलता तीन प्रकार की होती है । (१) लज्जा (२) जुगुप्सा एवं (३) अमंगल
अर्थवाचक |
पाद-टिप्पणी :
५१. बम्बई का ५० वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की २६४ वी पंक्ति है ।