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जैन राजतरंगिणी
यासां नृत्ये च गीते च त्वत्तो मेऽस्त्यधिकं सुखम् । वादोऽभवच्छ्रोत्रनेत्रयोः
इति
१२. देखने के समय जिनके नृत्य एवं गीत के विषय में - 'मुझे तुमसे अधिक सुख प्राप्त हुआ इस प्रकार का विवाद श्रोत एव नेत्र में हुआ ।
पालीगानपिकध्वाने रङ्गोद्याने दीपचम्पकमालास्ता मधुपैः परितो
१३. उस समय, पात्री गान रूप पिक शब्द ( ध्वनि )
रूप चंपक' मालाएँ, मधुपों द्वारा चारों ओर आवृत होकर, शोभित हो रही थी ।
राज्ञो राज्येक्षणात् तुष्टैर्नृत्यप्रेक्षागतैः सुरैः । दीपमालाच्छलान्मुक्ता नूनं
हेमाम्बुजस्रजः ॥ १४ ॥
१४. नृत्य पेक्षण हेतु आगत सुरों' ने राज्य देखने से सन्तुष्ट होकर, राजा के लिये दीपमालाओंके व्याज से निश्चय ही स्वर्ण कमल की मालाए छोड़ दीं ।
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आलस्य, (३०) असूया, (३१) अपस्मार, (३२) चपलता, (३३) निवेद, (३४) देवता में रति ।
भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र मे भाव पर प्रकाश डाला है । 'भावपत्ति' होने के कारण भाव की संज्ञा दी गयी है । भाव का अर्थ परिव्याप्त होना है ( नाट्य : ७ : १-२-३ ) | मानसिक अवस्थाओं का व्यंजक प्रदर्शनभाव है। इसी आधार पर विभाव, अनुभाव एवं संचारीभाव की स्थापना की गयी है । (२) तान : तन् धातु से तान बना है । स्वर प्रसार को तान कहते है । गान का एक अंग है । मूर्च्छना आदि द्वारा राग या स्वर तथा लय का विस्तार या अनेक विभाग कर स्वर अथवा गान में लय के साथ स्वरों का खींचना है । संगीत - दामोदर के मत से स्वरों से उत्पन्न तान ४९ है । इनसे ८३०० कूट तान निकले है । कुछ लोगों का मत है कि कूट तानों की संख्या ५०४० है ।
१ : ४ : ११ तान - एकोन्पञ्चाशत तान = ४९ तान । ये मूर्छनाश्रित ४९ ताडव ( छ: स्वरों की ) तानें थी । षड्जग्रामाश्रित २८ तांडव तानें और मध्यमग्रामाश्रित २१ तांडव तानें सब मिलाकर ४९ तांडव तानें थीं ।
(३) मूर्च्छना : परिभाषा की गयी है-‘स्वराणाम् क्रमेश आरोहावरोहाणाम् ।'
[ १ : ४ : १२-१४
प्रेक्षणक्षणे ॥ १२ ॥
तदा तन् ।
वृताः ।। १३ ।।
युक्त रंगमंच रूप उद्यान में, दीप
स्वरों को क्रम से आरोह एवं अवरोह को मूर्च्छना कहा जाता है ।
एक और परिभाषा है -- ' क्रमात्स्वराणां सप्तानामा रोहश्चावरोहणम् सा मूर्च्छत्युच्यते ग्रामस्था एताः सप्त सप्त च ।'
स्वरारोहण, स्वर - विन्यास, स्वरों का नियमित आरोहणावरोहण, सुखद स्वर संधान, लय-परिवर्तन, स्वर सामंजस्य, स्वर माधुर्य आदि को मूर्च्छना कहते हैं । पाद-टिप्पणी :
१३. ( १ ) चम्पा : हल्के पीले रंग का पुष्प होता है । चम्पा दो प्रकार की होती है— साधारण तथा कटहलिया | कटहलिया चम्पा की महक पके कटहल की गन्ध से मिलती है। इसकी लकड़ी पीली, चमकीली, मुलायम, मजबूत होती है । हिमालय की तराई, नेपाल, बंगाल, आसाम में अधिकता से पायी जाती है । इसके लकड़ी की मालाएँ चित्रकूट में बनती हैं। विशेषतया चम्पा दक्षिण भारत में पायी जाती है । इसे सुल्ताना चम्पा भी कहते है ।
हिन्दी कहावत है कि चम्पा में रूप, गुण, वास सभी गुण होते है, परन्तु उसमें एक ही अवगुण है भ्रमर उसके पास नहीं आता । पाद-टिप्पणी :
१४. ( १ ) सुर : देवता : देवताओंके २६