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१ : २ : १४-१९ ]
श्रीवरकृता
छादिताः शालयः खलमूर्खसभामध्ये
हिमैर्जनमनोहराः । स्वगुणा इव ॥ १४ ॥
पण्डितैः
१४. जब मनोहारी, पके शालियों को हिम ने उसी प्रकार आच्छादित कर लिया, जिस प्रकार खलों एवं मूर्खो के सभा मध्य, पण्डित अपने गुणों को ।
कुक्ष्यावेगाद् बुभुक्षार्तः
क्षपिताक्षः क्षणे क्षणे ।
पक्का
आशु दुर्भिक्षयक्षोऽत्र व्यधात् प्रक्षीणलक्षणम् ।। १५ ।।
१५. प्रतिक्षण कुक्षि (पेट) आवेग से भूख पीड़ित क्षपिताक्ष' दुर्भिक्ष, यक्ष ने यहाँ शीघ्र ही विनाश का लक्षण प्रकट किया ।
प्रविश्य रात्रौ गेहान्तः
क्षुद्भक्षद्रोह्यपीडितः । हिरण्यादि धनं त्यक्त्वा भाण्डेभ्योऽन्नमपाहरत् ।। १६ ।।
१६. क्षुधाधिक्य से पीड़ित व्यक्ति घर में प्रवेश करके, सुवर्ण इत्यादि धन त्यागकर, पात्रों से अन्न का अपहरण करता था ।
सर्वस्मिन् दिवसे शरा इवाविशन् देहे गेहे
पाद-टिप्पणी :
१४. बम्बई का 'स्वगुणा' पाठ ठीक है । पाद-टिप्पणी :
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रात्रावपि भिक्षु परम्पराः ।
धान्यव तदा ॥ १७ ॥
१७. उस समय प्रतिदिन रात्रि में भी भिक्षुओं की परम्परा, शरीर में शर के समान, धान्यपूर्ण घर में प्रवेश करती थी ।
धान्यवद्गृहसंदिष्टकृष्टकम्बुकदम्बकाः
नीरसापूपभोगेनाप्यरक्षन् केsपि जीवितम् ।। १८ ।।
१८. धान तुल्य घर में कम्बु ( सीप आदि) को पीसने वाले कुछ लोगों ने नीरस अपूप' खाकर, प्राण की रक्षा की थी ।
पालीपालीवतासक्तष्टङ्कटङ्कितभोजनः
चिराचिरास्वादरतः कोऽपि कोऽपि हतोऽभवत् ।। १९ ॥
१९. पालकों में आसक्त कसकर, भोजन करने वाला चिरकाल से आस्वाद रत रहने पर भी, कोई-कोई मर गया ।
१५. (१) क्षपिताक्ष : चारों ओर आँख फेंक कर या फैलाकर अर्थात् आँख गडा कर देखना ।
पाद-टिप्पणी :
१८. (१) अपूप : शर्करा या मीठा आटा में सानकर बनायी गयी पूरी । पूर्वीय उत्तर प्रदेश में उसे ठोकवा कहते है । मालपूआ और अपूप में अन्तर है । मालपुआ भी गेहूँ के आटा में मीठा मिलाकर बनाया जाता | परन्तु वह नीरस नहीं होता ।