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जैनराजतरंगिणी
सविभ्रमा धृतावर्ता वाहिन्युत्थाः सहेषिताः ।
जवादधावन्नुत्तुङ्गास्तत्तरङ्गतुरङ्गमाः
॥ ९ ॥
४
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९. विभ्रम' एव आवर्त युक्त' वाहिनी गत द्वेषित (शब्द) सहित उन्नत तरंग" तुरंग' दौड़ रहे थे |
अत्युच्चापातकुनी चोन्नतिदं
निरङ्कुशम् ।
आसीदपथ सत्यं तदा जलविजृम्भितम् ॥ १० ॥
१०. उन्नत को अवनत एवं अवनत को उन्नत करने वाला निरंकुश जल प्रवाह, उस समय वास्तव में कुपषगामी हो गया था।
इस नदी को वेथ तथा वेहूत कहते है । यूनानी इसे हैडसपेस कहते है ( द्र० : १३:१९, २४, ३३, ५५, ५७, ८२, १०९; १:४ ३; १:५.५६; २५३) ।
(२) लेवरी लिवर इसका प्राचीन नाम लम्बोदरी है । यह लिदर उपत्यका में बहती है । वितस्ता में अनन्तनाग और विजबहेरा (विजयेश्वर) के मध्य आकर मिलती है। इसीके तट पर पहलगाँव है। इसका नाम संदर्य एवं संदर्या (जोन० १०६ ) भी मिलता है। लेदर शब्द लम्बोदरी का अपभ्रंश है। केवल यही उल्लेख मिलता है।
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(३) सिन्ध यह सिम्य महानद नहीं बल्कि : काश्मीर उपत्यका की सिन्ध नदी है । वितस्ता में प्रयाग अर्थात् शादीपुर के पास आकर मिलती है । काश्मीरी साहित्य में इसे उत्तरगंगा कहा गया है। यह नदी दस उपत्यका तथा हरमुख पर्वत के उत्तरीय पर्वतीय क्षेत्रों के जल को ग्रहण करती है। वितस्ता की सबसे बड़ी सहायक नदी है। सोनमर्ग, कंगन तथा गान्दर वल से बहती वितस्ता से मिलती है। इसकी धारा बहुत तेज है। जल बहुत शीतल रहता है। लार उपत्यका में बहती है । गान्दर ब तक इसमें नायें चलती है। सिन्य महानद को काश्मीर में बड सिन्ध कहते हैं ( द्र० ११.५१ ) । (४) क्षिप्तिका श्रीनगर की कुटकुल नहर है ( द्र० ३ : १८८, ४ : १०७ ) । पाद-टिप्पणी
बल
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पद में श्लेष का बाहुल्य है ।
[१:३ : ९-१०
च
९ ( १ ) विभ्रम : इधर-उधर फिरना, या घूमना । पानी की उतावली के साथ गति । युद्धस्थल में सेना के अश्व जिस उतावली के साथ इधर-उधर दौड़ते है, उसी प्रकार जल उतावली के साथ वेग से घूम रहा था ।
( २ ) आवर्त : बालों के पट्टे या अयाल या जल की भँवर । जल में गर्त होने पर, आवर्त या भँवर पड़ जाते हैं । उसकी उपमा घोड़े के अयाल से श्रीवर ने दिया है ।
(३) वाहिनी सेना मे ५०० हाथी, ५०० रथ, १५०० अश्व तथा २५०० पैदल सैनिक होते है दश सेनाओं की एक पृतना तथा १० पृतनाओं की एक वाहिनी, प्राचीन परिभाषा के अनुसार होती थी । वाहिनी का अर्थ नदियों का पति समुद्र भी होता है। यहाँ अभिप्राय जलामय उपत्यका से हैं, जो समुद्र की तरह लग रही थी ।
( ४ ) हेषा घोडों का हिनहिनाना जलध्वनि या गर्जन से तात्पर्य है ।
( ५ ) तरंग अश्वों का छलांग लगाना, सरपट दौड़ना या जल की उत्ताल तरंगें उछल रही थी, जैसे सेना में अश्व छलांग लगाते या पंक्तिबद्ध लहरों की तरह चलते दिखाई देते हैं ।
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(६) तुरग अश्व, वेग से गमन करने वाले को तुरंग कहते है। पाद-टिप्पणी :
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१०. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण का २२३वीं पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का १०वां श्लोक है ।