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जैनराजतरंगिणी
[१ : १ : १३०-१३३ तदृष्ट्वा हाज्यखानोऽथ सत्रपः पितुरागमात् ।
अभिमन्युप्रतीहारमुख्यानाख्यदिदं वचः ॥ १३० ॥ १३०. यह देखकर लज्जित' हाजी खाँन पिता के आगमन से अभिमन्यु-प्रतीहारादि से यह बात कहीं
वरं पादप्रणामार्थं पितुर्याम्यमुतो बलात् ।
भूपस्तुष्टोऽथ रुष्टो वा यत् करोतु करोतु तत् ।। १३१ ॥ १३१. 'इस सेना से पिता के पाद प्रणामार्थ जाना उत्तम है। राजा तुष्ट होकर अथवा रुष्ट होकर, जो करे सो करे।
सर्वथा तातपादा मे सेव्या रक्षेत स नो ध्र वम् ।
तन्मा कुरुत युद्धेऽस्मिन् संरम्भं चेन्मतं मम ।। १३२ ॥ १३२. 'सर्वथा तात' पाद मेरे लिये सेवनीय है, वह हमलोगों की रक्षा निश्चय ही करेगा। यदि मेरा मत मान्य है, तो इस युद्ध का आरम्भ न करें।
किं तु स्वप्नेऽपि भूपाय नानिष्टं चिन्तयाम्यहम् ।
यो मे देवाधिकः पूज्यो लोकद्वयसुखप्रदः ॥ १३३ ॥ १३३. 'स्वप्न में भी राजा का अनिष्ट नहीं सोचता हूँ, जो कि मेरे देवता से भी अधिक पूज्य तथा दोनों लोकों में सुखप्रद है।
वह एक पुरानी मान्यता है। अतएव रूढ़िवादी हाजी खां ने पिता पर आक्रमण करना अस्वीकार सैनिक निष्प्रयोजन आयुधों का प्रदर्शन नही करते थे। कर दिया ( ४७१ )। पाद-टिप्पणी :
___ म्युनिख पाण्डुलिपि में भी यही बात लिखी
गयी है-हाजी खा पिता के विरुद्ध युद्ध नही करना 'ख्या' पाठ-बम्बई।
चाहता था (पाण्डु० ७४ बी० )। १३०. (१) लज्जित : दूत के साथ हुए पाद-टिप्पणी: व्यवहार को देखकर, हाजी खा लज्जित हो गया।
१३२. (१) तात : सम्बोधन है । स्नेह, दया उसे पश्चाताप हुआ। वह पिता से सन्धि करना
एवं प्रेम प्रकट करता है । आदरणीय तथा वरिष्ट चाहता था ( म्युनिख : पाण्डु० : ७४ बी०)।
व्यक्ति के लिए आदरसूचक प्रयोग है। यथा-है (२) अभिमन्यु प्रतीहार : इसका उल्लेख पिता हि वहवो नरेश्वरास्तेन तात धनुषा धनुभूतः पुनः २ : १९६, ३:१०३, १२५ में किया गया है। (रघु० : ११ : ४०)। अपने से छोटे विद्यार्थी
आदि के प्रति स्नेह प्रदर्शन के लिए भी प्रयोग किया पाद-टिप्पणी:
जाता है-मुष्यन्तु लवस्य बालिशतां तात पादाः सा : फिरिस्ता लिखता है- (उत्तर : ६)। 'तात चन्द्रापीड' ( कादम्बरी)।