________________
द्वितीयः सर्गः
भूभृतो निर्गता प्रेमसरित् प्रोच्चानुजच्छलात् ।
प्रत्यावृत्ता कियत्कालं शुद्धाग्रजमशिश्रियत् ॥ १ ॥ १ राजा का प्रेम अनुज के छल के कारण (उससे) परावृत होकर, शुद्ध अग्रज (ज्येष्ठ भ्राता) का आश्रय लिया। जिस प्रकार पर्वत से निकली नदी, उन्नतावनत भूमिष्ट स्थान से सम (भूमि) का आश्रय लेती है।
यत् स्नेहभागी सुदशाभिरामो
___भाति प्रदीपः समुपास्य पात्रम् । आशाप्रकाशैकनिधेस्तदारादसंनिधानेन
विरोचनस्य ॥ २॥ २. दिशाओं के प्रकाशनिधि सूर्य का सन्निधान न होने से ही, स्नेह (तैल) युक्त एवं सुन्दर दशा (बत्ती) से शोभित, प्रदीप पात्र पाकर, सुशोभित होता है।
ददावादमखानाय नायकः स क्षितेस्तदा ।
प्रमेयान् क्रमराज्यस्थाननुजीयान् विरागतः ॥ ३ ॥ ३. तदनन्तर वह पृथिवीपति विराग से क्रमराज्य' गत प्रमेय (विश्वास योग्य) अनुजीव्य जनों को आदम खाँ के आधीन कर दिया।
पाद-टिप्पणी :
(२) प्रमेय = जागीर : श्रीवर ने इसी अर्थ मे १. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण का प्रमेय शब्द का पुनः उल्लेख (१:४:४९ ) १७८वीं पक्ति तथा बम्बई एवं संस्करण का प्रथम किया है । श्लोक है।
फिरिस्ता लिखता है-इस समय सुलतान ने पाद-टिप्पणी:
आदम खाँ को गजरज (क्रमराज्य ) एक सेना के ३.(१) क्रमराज्य = कामराज : या कमराज। साथ भेजा कि वहाँ के कोट पर वह जाकर, आक्रमण